रचना:
माँ
-संतराम पाण्डेय-
माँ जानती है, माँ ही जानती है
जिंदगी की हकीकत
वह जानती है कि
कल जब मैं नहीं होऊंगी
ये अकेले ही खड़ा होगा
जिंदगी के कुरुक्षेत्र में
वह घिरा होगा
तमाम अलाओं-बलाओं से
उसके काम आएगी
मेरी आज की तैयारी।
वह माँ ही है
जो बन जाती है
अपनी संतान की प्रथम गुरु
और सिखाती है
जिंदगी से जूझने के
हर पेंचोखम जीत की
वह बन जाती है
एक कुशल ट्रेनर
और
अपनी संतान को पारंगत कर
दे देती है आदेश
जा, जा, जा मेरे लाल
मेरी लाडो लड़ दुनिया की
हकीकतों से और
बन जा कुरुक्षेत्र
का वॉरियर।।
माँ, एक हकीकत है
एक नायाब तोहफा है
परमपिता का
एक जीती जागती देवी है
इस नश्वर संसार में
जो अर्चन है
अर्जन है
सर्जन है
समर्पण है
माँ ही है जो केवल
वक्त की पुकार पर
नश्वर देह त्यागती है
नहीं त्यागती अपनी संतति।।
माँ के खूंटे से बंधे रहने का
सौभाग्य मिलता है विरलों को
माँ का स्मरण है
परमपिता के स्मरण सम
वह
पूजनीया है, नमनीया है
और है
प्रातः स्मरणीया।।
प्रातः नमनीया।।