Nov 13, 2011

आर्थिक आजादी के सपने का भटकाव

संतराम पाण्डेय-
आज देश तरक्की कर रहा है। विश्व में भारत की खास पहचान है। जिस रफ्तार से देश तरक्की कर रहा है, उसी रफ्तार से कुछ ऐसी चीजें छूटती जा रही हैं, जो देशवासियों के हित से गहराई से जुड़ी हैं। इसी तरक्की की रफ्तार के बीच जब यह खबर आई कि देश के लोग शहर में ३२ रुपए और गांव में २६ रुपए में गुजारा कर सकते हैं तो देश का आम आदमी सन्न रह गया। वह सोचने लगा कि क्या हमारे देश को आजाद कराने वालों ने आजाद भारत का जो सपना देखा था, वह यही था जिसमें यह परिकल्पना की जा रही है। एक बात तो सत्य है कि आजादी के बाद देश के शहरों का विकास हुआ है और गांव शहर के निकट आए हैं। एक तरह से देखा जाए तो गांवों का भी शहरीकरण हुआ है लेकिन लोगों की आर्थिक आजादी का जो सपना आजादी की लड़ाई की पीढ़ी के नेताओं ने देखा था, उससे आज हम भटक गए हैं। आर्थिक आजादी के मुद्दे पर कमजोरी आई है। आज ३२ और २६ रुपए में गुजारा कर लेने की जो कल्पना की जा रही है, यह इस बात का प्रमाण है। धन की जो असमान पहुंच हुई है, उसने देशवासियों को इस हालत में पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दरअसल देश को आजाद कराने वालों का सपना क्या था, उस पर हम नजर डालें तो बात काफी कुछ साफ हो जाती है।
आजादी के बाद गांधी जी ने नेहरू को एक पत्र लिखा। उसमें गांव के विकास की कल्पना का ताना-बाना प्रदर्शित था। पत्र का मजमून कुछ इस प्रकार था-'....तुम्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि मेरी कल्पना में वही ग्रामीण जीवन है जो आज हम देख रहे हैं। मेरे सपनों का गांव अभी तक मेरे विचारों में ही है। मेरे आदर्श गांव में बुद्धिमान मानव होंगे। वे जानवरों की तरह, गंदगी और अंधकार में नहीं रहेंगे। उसके नर-नारी स्वतंत्र होंगे और संसार में किसी के भी सामने डटे रहने की क्षमता वाले होंगे। सबको अपने हिस्से का शरीर श्रम करना होगा।Ó पंडित नेहरू ने इस पत्र का जो जवाब लिखा, अब उसके कुछ अंश- '.....मेरी समझ में नहीं आता कि गांव आवश्यक तौर पर सत्य और अहिंसा का साकार रूप क्यों होना चाहिए। सामान्यत: गांव बुद्धि और संस्कृति की दृष्टिï से पिछड़ा हुआ होता है और पिछड़े हुए वातावरण में कोई प्रगति नहीं की जा सकती। संकीर्ण विचारों के लोगों के लिए असत्यपूर्ण और हिंसक होने की संभावना ज्यादा रहती है। हमें गांव को शहर की संस्कृति के अधिक निकट पहुंचने के लिए प्रोत्साहन देना पड़ेगा। अक्तूबर १९४५ में भी गांधी जी ने पंडित नेहरू को एक पत्र लिखा था। उनका यह पत्र भारत और उसके गांव की परिकल्पना पर था। गांधी जी ने लिखा था- 'हमारे दृष्टिïकोण में जो भेद है, उसके बारे में लिखना चाहता हूं। यदि वह भेद बुनियादी है तब तो जनता को वह मालूम हो जाना चाहिए। उसे अंधकार में रखने से हमारे स्वराज्य के कार्य को हानि पहुंचेगी।Ó पत्र की इन पंक्तियों से साफ होता है कि गांधी जी के मन में स्वराज्य का जो खाका था, उससे पंडित नेहरू इत्तेफाक नहीं रखते थे और यह भी कि यह बात दोनों को पता थी लेकिन दोनों ही विचार-विमर्श के माध्यम से किसी ऐसे नतीजे पर पहुंचना चाहते थे जो कि देश की जनता के लिए हितकर हो। अब जब हम इतने दिनों बाद इन पत्रों के मजमून को देश की धारा की कसौटी पर परखते हैं तो दिखता है कि गांधी जी के विचार कहीं पीछे छूट गए हैं और पंडित नेहरू के विचार प्रभावी हैं। हम नेहरू के विकास की अवधारणा के करीब पहुंच रहे हैं। गांव को शहर बना रहे हैं जबकि संकीर्ण विचार गांव हो या शहर, कहीं भी पल और पनप सकते हैं। आज कथित विकास की दौड़ में आगे निकल रहे शहर हमारे देश के गांवों से सांस्कृतिक रूप से अभी भी पिछड़े हुए ही हैं। अब जिस विकास की रफ्तार को सरकारें हवा और पानी दे रही हैं, उसमें हैरानी की बात यह है कि भारत की७० फीसदी ग्रामीण आबादी सांस्कृतिक रूप से भी पीछे छूटती जा रही है। व्यवस्था भी इससे प्रभावित है। जातिवाद की राजनीति ने भी उसका रूप बदलने का काम किया है। वस्तुत: अब पिछड़ेपन की परिभाषा को बदलने की जरूरत है। आज जब ग्रामीण क्षेत्रों के विकास की बात होती है तो व्यवस्था ही अवरोध के रूप में खड़ी दिखाई देती है और यहीं गांधी जी के स्वराज का सपना टूटता हुआ दिखाई देता है। प्रति व्यक्ति आय में दुनिया में 147 वें स्थान पर। 29 करोड़ प्रौढ़ आज भी अशिक्षित हैं। 5 करोड़ बच्चों ने प्रारंभिक स्कूल का मुंह भी नहीं देखा है। 14 करोड़ लोगों को प्राथमिक स्वास्थ सेवाएं तक उपलब्ध नहीं हैं। विशिष्टï लोगों की सुरक्षा पर 361 करोड़ रुपये खर्च होता है। मंत्री परिषद् पर 50 करोड़ 52 लाख रुपये की बजट में व्यवस्था है। सरकार चलाने से सात गुना अधिक इन मंत्रियों की सुरक्षा पर खर्च है। देश की दशा सुधारने की जिम्मेदारी मूल रूप से सरकारों की है, वह चाहे राज्य की सरकारें हों अथवा देश की। जनप्रतिनिधि आज जिस दिशा में चल रहे हैं और राजनीति उन्हें जिस धारा की ओर बहा रही है, उसमें यह कम ही संभव दिखता है कि वह इस व्यवस्था से देश को उबारने में कामयाब होंगे। जनप्रतिनिधियों को चाहे वे पक्ष के हो या विपक्ष उन्हें उस जनता के दर्द को, उसके दुख को समझना होगा और लोकतंत्र के मंदिर में एक सार्थक चर्चा करनी होगी। आवश्यक चीजों और पेट्रों पदार्थो की कीमतों में वृद्घि की जिम्मेदारी से सरकार बच नहीं सकती। किसानों की आत्महत्या हो, भूख या गरीबी हो, बेरेाजगारी हो.... उससे सरकार अपना पल्ला झाड़ नहीं सकती। ऐसा क्यों है कि अनाज का इतना अधिक उत्पादन हो कि वह गोदामों में न अट पा रहा हो, अनाज सड़ रहा हों और उधर लोग बेकाबू महंगाई से त्रस्त हों। महंगाई की समस्या लगातार बनी हुई है और सरकार का रुख कुछ ऐसा है कि हम क्या करें? आंकड़े उठा कर देखकर देख लीजिए या याद पर ही जोर डालिए १९९९ में गेहंू सात रुपये प्रति किलो की दर से बिक रहा था। आज १७-१८ रुपये किलो गेहूं बिक रहा है। आम आदमी का साधारण चावल इन्हीं दिनों आठ रुपये किलो था, पर आज १६-२० रुपये प्रति किलो बिक रहा है। जानकारों का बताना है कि हमारे खान-पान की सामग्री की कीमत एक साल में २० प्रतिशत के लगभग बढ गई है। अर्जुन सेन गुप्त एवं अन्य जानकारों के यह कहने से क्या फर्क पड़ता है कि हमारे देश में ८४ करोड़ लोगों की प्रतिदिन औसत आय बीस रुपये है। यह आइने की तरह साफ है कि हमारे देश के तत्कालीन कर्णधारों का यह सपना नहीं था कि जिसके हाथ में देशवासी अपनी तकदीर सौंप रहे हों, वह घपले और घोटाले करे तथा जेल की शोभा बढ़ाए। आज देश के कर्णधारों को ही यह सोचना होगा कि देश को इन परिस्थितियों से उबारने का रास्ता क्या हो?

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