Apr 13, 2011

जनता के सवाल

गोदामों में सड़ रहा है लाखों टन खाद्यान : देश की एक बड़ी आबादी को नहीं मिल रहा दो वक्‍त का भोजन : बाजारों पर सरकार का नियंत्रण नहीं : गालिब ने कहा था- 'ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले, निकलना खुल्द से आदम का सुनते आए थे लेकिन, बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले।' आमजन पर ये पंक्तियां आज भी मौजूं हैं। आमजन जो चाहता है, वही नहीं होता। यों तो उसी की सरकार है, उसी के लिए है, उसी की बनाई हुई है, फिर भी जन अपेक्षाएं सरकारों की चौखट पर दम तोड़ रही हैं। आप कभी बाजार गये हैं? यह सवाल इसलिए कि बाजार जाने वाला ही बाजार का दर्द जान सकता है। आज सड़क से लेकर संसद तक महंगाई की चर्चा जुबां पर है, वह चाहे नेता हो या आम जन। महंगाई को लेकर देश की व्यवस्था इसलिए आरोपों के घेरे में हैं क्योंकि उसी की लापरवाही और अदूरदर्शिता के कारण चीजों के दाम आसमान छूने लगे हैं। बाजार का रुख केवल उपलब्धता पर ही निर्भर नहीं करता, और भी कुछ कारण जुड़े हैं। बाजार से आम जन की रसोई जुड़ी हुई है। बाजार के उतार चढ़ाव के हिसाब से रसोई में भी उतार चढ़ाव चलता रहता है। आंकड़ों की बात करें तो देश के ढेर सारे नागरिक दो वक्‍त की रोटी के लिए भी मोहताज हैं। कभी उनकी रसोई में रोटी है तो सब्जी नहीं और चावल होता है तो दाल नहीं। इसका कारण महंगाई और अव्यवस्था दोनों हैं। सूचना थी कि सरकार द्वारा खरीदा गया लाखों कुन्तल गेहूं बारिश में भीगने के कारण नष्ट हो गया। इस पर राजनीतिक क्षे़त्रों में गरमा-गरमी हुई। मामला कोर्ट के संज्ञान में पहुंचा तो कोर्ट ने भी व्यवस्था को दोषी ठहराते हुए कहा कि यदि अनाज सुरक्षित नहीं रखा जा सकता तो उसे गरीबों में बंटवा क्यों नहीं देते। माना जाए तो यह टिप्पणी व्यवस्था पर बहुत बड़ा तंज है। जब देश के असंख्य नागरिकों को एक वक्त की रोटी भी नसीब न हो रही हो तो ऐसे में सरकारी खरीद और कल के लिए अनाज बचाकर रखने की सोच किस काम की है ? बात बाजार की हो रही है। आजकल बाजार अमूमन बाजार वालों के हिसाब से चलता है। किसी भी बाजार में चले जाइये, वस्तुओं की रेट सूची नदारद ही मिलेगी। यह हालत केवल खाद्य पदार्थो में ही शामिल वस्तुओं की ही नहीं है। कपड़ा, फर्नीचर, वाहनों पर यात्री किराया जैसी सभी बातें इसमें शामिल हैं। जो रेट बाजार ने तय कर दिया, वही लागू हो जाता है, लेकिन वह भी पूरी ईमानदारी के साथ नहीं। जैसा ग्राहक मिलता हैं, उसी तरह रेट तय हो जाता है, वह व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी हैं कि एक ही बाजार में एक ही चीज के कई -कई रेट मिलते हैं। चीजों के रेट में उतार और चढ़ाव के पीछे और भी कई कारण है। इसमें मिलावट सबसे प्रमुख है। कोई भी शुद्धता की गारंटी नहीं ले सकता, वह चाहे व्यवस्था से ताल्लुक रखता हो अथवा हो अथवा वह उपभोक्ता हो। मिलावट ही वह रोग है, जिससे उपभोक्ता दो तरह से पिस रहा है। अधिक कीमत अदा करने के बावजूद किसी उपभोक्ता को शुद्ध सामग्री मिल ही जाएं, इस बात की गांरटी नहीं है। बाजार पर अकुंश लगाने के लिए जो व्यवस्था बनाई गई है, वही पूरी तरह निरंकुश है। व्यवस्था ही संदेश के घेरे में बनी रहती है। मिलावटियों के खिलाफ अभियान चलाने वाले कभी गंभीर हुए हों, याद नहीं आता। हमारे समाज की रीत है कि घरेलू चीजों की ज्यादातर खरीदारी महिलाएं ही ज्यादातर करती हैं। उन्हें बाजार के बारे में ज्यादा पता होता है। उनकी नजर शुद्धता की पहचान करने में भी पुरूषों से ज्यादा पैनी होती है। इस कार्य में पुरूषों को फिसड्डी साबित करना हमारा मकसद नहीं है लेकिन सच्चाई यही है कि महिलाएं खरीदारी में ज्यादा निपुण होती है। संवैधानिक तौर पर देश की व्यवस्था इतनी चाक-चौबंद बनाई गई है कि यदि सब अपने-अपने मोर्चे पर ईमानदारी से डटे रहें तो गड़बड़ी का सवाल ही नहीं है, लेकिन यदि ऐसा हो जाए तो फिर अव्यवस्था शब्द को ही शब्दकोश से निकालना पड़ जाएगा। अभी जब विपक्षी दलों ने सरकार को मंहगाई के मसले पर घेरा तो सरकार परेशान हो उठी। सरकार को अपनी कुर्सी खतरें में दिखाई देने लगी। विपक्षी दलों को भोज पर बुलाकर सब कुछ मैनेज कर लिया गया। देश की जनता को क्या सवाल पूछने का हक नहीं है कि यदि सरकार नागरिकों को तयशुदा रेट पर सामग्री नहीं दिला सकती और बाजार को नियंत्रित नहीं रख सकती तो उसे सत्‍ता में बने रहने का हक क्यों दिया जाए? लेकिन लगता है कोई भी राजनीतिक दल जनता की इच्छाओं से सरोकार रखता ही नहीं। इस सवाल का जबाव जनता को कौन देगा कि उसे हर चीज सुलभ क्यों नहीं हो पा रही हैं? इसके लिए जो भी तत्व जिम्मेदार हैं, उनके खिलाफ कार्रवाही करने में हीला-हवाली क्यों की जाती हैं? कभी इसी देश में सुना जाता था कि कम अथवा गलत तोलने वाले के हाथ काट लिए जाते थे। यदि कभी ऐसा होगा रहा होगा तो यह भी सच है कि उस वक्त की सरकारें आज की सरकारों से ज्यादा संवेदनशील रही होंगी। यह भी जाहिर है कि उस किस्म की सरकार को अपनी नहीं, जनता की चिंता ज्यादा रहती होगी। क्या आज? जबकि देश में जनता की, जनता के लिए सरकारें हैं तो जनता के सापेक्ष व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती ? देश में सरकारें चलाने वाले राजनीतिक दलों की अपनी-अपनी विचारधाराएं है और सभी जनता के लिए अच्छी हैं तो सवाल उठता है कि अब वह जनता की कसौटी पर भोथरी क्यों हो गई हैं? केंद्र की सत्‍ता में बैठे दल का दावा है कि वह देश के सभी फिरकों और पक्षों को साथ लेकर चलने मे सक्षम है तो क्या कारण है कि आज जनता की अपेक्षओं पर वह फिसड्डी साबित हो रही हैं? एक दल दावा करता है कि समाजवाद की विचारधारा उसे विरासत मे मिली है लेकिन लगता है कि वह भी समाज वाद को भूल बैठा है। एक और दल स्वयं को बहुजन समाज के हितों का पोषक होने का दावा करता है लेकिन उसके राज में आज बहुजन के हित ही भट्ठी पर चढ़ रहे हे। कोई दल हिंदू हितों का पोषक होने का दावा करता है लेकिन समाज में उनकी नीतियां भी कसौटी पर खरी नहीं उतर रही हैं। ऐसा क्यों ? दल अपनी-अपनी नीतियों से डिगे हुए क्यों है ? महंगाई की बात करें तो इस एजेंडे पर यूपीए नाकाम साबित हुई है। महंगाई पर आज सबसे ज्यादा असर पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतों ने डाला है। सरकार पर यह आरोप लगता ही रहता है कि उसके कई मंत्री पूंजीपति घरानों के संपर्क में रहते है इसलिए उनके खिलाफ कुछ करने का साहस उनमें नहीं है। इससे एक बात यह भी साबित होती है कि राजनीतिक स्पेस में ठंसे हुए नेताओं के बीच जनता की पक्षधर कोई जमात नहीं है, जो उसके हितों की जोरदार वकालत कर सके। व्यवस्था बनाने में नौकरशाही की महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन नौकरशाही जनहितों की परवाह करने में नाकाम साबित हो रही है। ऐसी स्थिति में बाजार के मालिक बाजार वाले खुद ही बन बैठे हैं तो इसके लिए देश की जनता अथवा बाजार नहीं, सरकार और व्यवस्था खुद ही जिम्मेदार है। आज यह भी समझ लीजिए कि महंगाई को लेकर जनता मे जो गुस्सा है, वह किसी राजनीतिक दल के खिलाफ बागी न बना दे। आज वह छटपटा रही है। जनता की छटपटाहट दूर करने के लिए सरकार को इस बौनी व्यवस्था के खिलाफ कुछ निर्मम फैसले लेने पड़ सकते है लेकिन ऐसा करने के लिए मजबूत इच्छा शक्ति का होना जरूरी है।

Apr 12, 2011

बस एक ही अन्ना काफी है.....

बस एक ही अन्ना काफी है आबाद गुलिस्ताँ करने को . इस देश को अन्ना की जरुरत तो गाँधी जी के बाद से ही थी । यदि वह पहले ही आ गए होते तो आज देश इस हालत में न पहुंचता और न हम लोग पहुँचाने ही देते । अब तक देश में अनेक अन्ना हो चुके होते और ये सारे अन्ना मिलकर देश की निगहबानी कर रहे होते। गाँधी जी ने जिस भारत की कल्पना की थी वह तो लगता है उनके साथ ही चला गया । इन लोंगो ने जो भारत बना दिया शायद यह उनकी कल्पना नहीं थी । मजे की बात यह है कि यहसब कुछ उनका ही नाम लेकर किया जा रहा है । देश में आज आतंकवाद , लूट खसोट महंगाई और घपले घोटाले अपने चरम पर हैं और यह सन देश के नेताओं की देख रेख में हो रहा है । अगर ऐसा नहीं है तो इस सवाल का जवाब कोई क्यों नहीं देता की इसके लिये जिम्मेदार कौन है । जब देश की जनता अपना वोट देकर उन्हें जिम्मेदार बनाती है तोवह अपनी जिम्मेदारी से कैसे मुकर सकते हैं और नहीं जिम्मेदारी उठा सकते तो जाना ही होगा और अन्ना यही तो कह रहे हैं की ठीक से देश के लिए काम करो । नहीं कर सकते तो घर बैठो । अब एक नहीं हजार अन्ना जवाब मांगेगे और जनता के सवालों का जवाब देना ही होगा क्योंकि वही इस देश की असली मालिक है । अब समय आ गया है की देश के हर नागरिक को अन्ना बनना पड़ेगा । जय भारत जय हिंद जय जनता ॥