Aug 23, 2011

वाह भई वाह ! इस बच्ची ने तो डीजे कि धुन पर तो कमाल ही कर दिया ।


सानु जी नाना कि गोद में । कह रहे हैं मेरी फोटो ध्यान से खींचना ।


प्रेम से बोलो जय माता दी । भोज पर भाई लाविन्द्र के साथ इन्द्रमोहन आहूजा और हम .


Aug 18, 2011

हम साथ साथ


भोज के मौके पर आशा , रीमा और मेरी बेटी प्रियंका


भोज पर हम डॉ जी एस भटनागर जी के साथ ।


जब हम बेटे कि शादी के भोज पर मिले

Aug 17, 2011

हमारा कसूर क्या है

हमने उन्हें चुना
जो लगे अच्छे
अब वो बिगड़ गए
तो मेरा कसूर
क्या है !
वो आये थे वोट मांगने
दे दिया हंसकर
अब वो रुलाने लगे
तो मेरा कसूर
क्या है !

Aug 12, 2011

ट्रैफिक व्यवस्था पर भीड़ भारी

सड़क पर बढती भीड़ अब ट्रैफिक व्यवस्था पर भारी पड़ रही हैं। रोज व्यवस्था सुधारने की बातें होती हैं लेकिन हालात सुधरते नही। हालत यह है जैसे चादर जरूरत से ज्यादा छोटी है। एक तरफ पैर ढंकते है तो दूसरी तरफ बदन उघड़ जाता हैं। अधिकारी ट्रैफिक से परेषान है और सड़क पर चलने वाले लोग व्यवस्थ से। न व्यवस्था सुधर रही है और न लोगों की समस्या का समाधान हो रहा है। जिस तरह से विभागीय अधिकारी व्यवस्था बनाने में ओैर पब्लिक इस समस्या से जूझ रह हैं, उससे लगता है कि सटीक समाधान की दिषा में हमारे ेकदम बढ ही नहीं पा रहे हैं। यानि कि मर्ज कुछ और है और दवा कुछ और दी जा रही है। इससे इलाज कहां संभव है। परिणाम सामने है कि रोज दुर्घटनाएं हो रही हैं और लोग मर ाहे हैं या अपंग हो रहे हैं। सुचारू ट्रफिक के लिए जो नियम कायदे बने हैं, उनका पालन करना लोग अपनी हेठी समझते हैं। जगह-जगह सड़कों के किनारे लिखा मिल जाता है कि षराब पीका वाहान न चालाएं, जगह मिलने पर ही ओवरटेक कों लेकिन लोग हैं कि मानते ही नहीं। खुद भी टक्का खा रहे हैं और दूसरो को भी टक्कर दे रहे हैं।सड़क की भीड़ केवल भारत की ही समस्या नहीं है। कई देषो मे ट्रैफिक समस्या है। कुछ दंषो ने समाधन ढूंढ लिए और कुछ अभी संघर्श कर रहे हैं। जिन देषों ने अपने देष की जरूरतों, सामाजिक ढांचे और संसाधनों को ध्यान मे रखा,वह इस समस्या से पार पा चुके है। लंदन, थाइलैंड, मलेषिया और जापान जैसे दषों मे लोग जाम से निजात पा चुके हैं। लंदन मे कई स्थान अैर बाजार ऐसे हैं, जहां केवल पब्लिक ट्रांस्पोबर्् से ही जाया जा सकता है। निजी वाहन या तो घर छोड़कर लोग जाते हैं अथवा पार्किग मे पार्क करतेे हैं। यह नियम पूरी स्ख्ती से लागू किया जाता है कि प्वाइंटेड बिंदुओं पर जाने के लिए पब्लिक ट्रांस्पोर्ट का ही सहारा ले। कुछ देषों ने एक और विकल्प तैयार किया है। बाजार अथवा भीड़-भाड़ वाले स्थान पर यदि कोई अपनी गाड़ी से जाता है तो उसके लिए उसे ााएक तयषुदा धनराषि टैक्स के रूप् में अदा करनी पड़ती है। अपने देष की बात करें जो यह समस्या किसी एक षहर की नहीें है। देष केक प्रायः सभी छोटे-बड़े षहर इस समस्या से जूझ रहे हैं और ट्रेैफिक नियमों का परलन न करने से देष की सड़के रोज खून से लाल हो रही है। दरअसल ट्रैफिक के दो परबर्् हैं-षहरी ट्रफिक ओैर हाई-वे ट्रैफिक। षहरी ट्रफिक जाम जैसी समस्या को जन्म देता है जिसमें बेषकीमती तेल का दुरूप्योग होता है और हाई-वे ट्रैफिक दुर्घटनाओं को दावकत देता है जिसमे बेषकीमजी जानें जाती हैं। सुचारू ट्रैफिक की व्यवस्था से दोनों को रोका जा सकता है लेकिन इसके लिए हमें परंपरागत ट्रफिक व्यवस्था सक दामनों को रोका जा सकता है लेकिन इसकके लिए हमें परंपरागत ट्रैफिक व्यवस्था को अपनाने की ओर उन्मुख होना पढ़गा। केसी हो हमारी परंपरागत ट्रैफिक व्यवस्था, इस ओर भी हमें ध्यान देना होगा।अभी तो केवल हवा में तीर मारे जा रहे हैं। सड़कों के किनारे चेतावनी लिख देने मात्र से काम नहीं चलने वाला, जो ट्रफिक प्लान बने, उस पर अमल भी उसी तत्परता से हो।इस दिषा मे एक बात और आड़े आ रही है। ट्रैफिक की समस्या के समाधान में लोगों का जो सहयोग मिलना चाहिए वह नहीं मिलता। समस्याओं को टालना, उनका सामना न करना या अस्थाई समाधान खोजना लोगों की आदत बन गई है। षहरों का अंधाधंुध ओैर बिना समझे-बूझे विस्तार, पब्लिक ट्रांसपोर्ट का अभाव, सड़को और पुलों का अभाव, यातायात के नियमों का पालन न करना आदि कारण हैं जिन पर समग्र रूप् से विचार किए जाने की जरूरत है। प्रषासन का रवैया टालने वाला है। जाहिर हैं समस्या के प्रति गंभीर रूझान का अभाव और व्यक्तिगत ढंग से समाधान खोजने की प्रवृति से समस्या विकराल रूप् धारण कर रही है।एक समस्या और है जो हमारी सोच से जुड़ी है। सड़को पर चलने वाली गाड़ियां संपन्नता का प्रतीक बन गई हैं। इसका परिणम साफ दिख रहा है कि चार सदस्यों के संपन्न परिवारो मे चार नहीं छह-छह गाड़िया है और जब वह कहीं निकलते हैं जो अलग-अलग गाड़ियो मे सड़को पर उतरते हैं। संपन्नता बढ़ी है। जो लोग पहले साइकिलों से चलते थे, अ बवह गाड़ियो से चलने लगे हैं। संपन्नजा का बढना किसी भी देष और षहर की आवष्यकता तथा उपलब्धता को भी याद रखना जरूरी है। सडकें कम हो अथवा उनकी चौड़ाई कम हो तो संपन्न लोगों को स्वतः ही इससे बचना चाहिए। लेकिन हमारे देष मे इसका उल्टा हो रहो है। अपने षहर की अति च्यस्त बाजार में ही क्यों न जाना हो, लेकिन कार से ही जाएंगे और कार वहां तक जाएगी, जहां हमें खरीदारी करनी होगी, भले ही बाजार मे कितनी भीड़ क्यो न हो। यह सामंती सोच को दर्षाती है। इससे बचना होगा और पार्किग की व्यवस्था करनी ही होगी तथा सुचारू ट्रैफिक के लिए जो नियम बानाए गए है उनका पालन करना ही होगा। आज ट्रैफिक लाइटों का भी अतिक्रमण करते लोगों को देखा जा सकता है। उन्नीसवीं षताब्दी मे जब ट्रैफिक लाइट की षुरूआत हुई तो उस समय मोटर गाड़ियो का प्रचलन नहीं था। लंदन मे ब्रिटिष पार्लियामेंट हाउस के निकट दुनिया की पहली ट्रैफिक लाइट लगी थी। इसके नीचे एक लालटेन रखी जाती थी और लाइट को घुमाया जाता था। बाद मे इसमें काफी सुधार हुआ। 1912 मे एक पुलिय अधिकारी लेस्टर वायर ने इसका आविश्कार किया। आज षहरों के अति व्यस्त चौराहों तथा दुर्घटना संभावित स्थानों पर ट्रैफिक लाइट लगी होती है, लेकिन लोग उसका अनुसरण नहीं करते जो कि दुर्घटनाओं और जाम का कारण बनती हैं।दुर्घटनाओं और सड़कों पर लगने चाले जाम से छुटकारा पाने के लिए जरूरी है कि लियमों का पालन सख्ती से हो और भीड़भाड़ वाले स्थानों पर वाहन प्रतिबंधित किए जाएं।

Aug 11, 2011

मेरा घर

लगता है कि
यह मेरा ही
घर है
वही जो काफी
पहले कही गम गया था
अब आकर
मिला दुबारा
मेरे अपनों के साथ
मेरा अपना घर।

Aug 9, 2011

जीवन में भटकाव, समस्या की जड़

‘शिक्षा प्रारम्भ करने से पहले एक शिष्य गुरु से अपनी कुछ शंकाओं का समाधान करने के उद्देश्य से आया। उसने गुरु से पूछा-मनुष्य के जीवन का उद्देश्य क्या है? गुरू ने जवाब दिया- मैं नहीं बता सकता। शिष्य ने फिर पूछा-जीवन का अर्थ क्या है? गुरू ने फिर मना कर दिया। इसके बाद शिष्य ने पूछा- मृत्यु क्या है और उसके बाद कौन सा जीवन है? गुरू जी फिर कहा- हम नहीं बता सकते। अब तक शिष्य झल्ला चुका था। यह सोचकर कि जब गुरु जी कुछ बता ही नहीं सकते तो यहां शिक्षा प्राप्त करने से क्या लाभ? गुरू जी के अन्य शिष्यों ने उसके इस तरह से चले जाने को गुरु का अपमान समझा। कुछ ने यह भी समझ लिया कि लगता है कि हमारे गुरु जी को ज्ञान नहीं है। शिष्यों के मन में चल रही उथल-पुथल को गुरु जी भांप गए और बोले-जिस जीवन को तुमने अभी तक जीना प्रारंभ ही नहीं किया है, उसके बारे में जानकर क्या करोगे। सामने रखे भोजन के बारे में अटकल लगाने से अच्छा होगा कि उसे चखकर देख लिया जाए। ‘एक दार्शनिक अन्थोनी डिमेलो ने कहा-‘जीवन विचार से नहीं, अनुभव से मिलता है।’मोटे तौर पर जन्म से मृत्यु तक बीच की अवधि को जीवन कहते हैं। जीवन अपनी इच्छा से नहीं मिलता है। यह नर और मादा के समागम का परिणाम है जो कि प्रकृति का नियम है। जीवन का एक आवश्यक अंग चेतना है जो मनुष्य की गतिविधियों को संचालित करती है और वही उसकी साक्षी भी होती है। यही वह तत्व है जो जीवन को सार्थकता प्रदान करता है। एक दिशा प्रदान करता है। यह मनुष्य के जीवन को उद्देश्यवान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। एक तरह से यह जीवन के शरीर के कंप्युटर की हार्डडिस्क की तरह है।जीवन के बारे में यह कुछ बताने का अभिप्राय यह है कि आज मनुष्य की जिंदगी उलझ गई है, मनुष्य इस उलझाव में फंस गया है और उसे इस उलझाव से कैसे बाहर निकाला जाए। इस उलझाव का एक परिणाम यह है कि मनुष्य का जीवन सार्थक नहीं बन पा रहा है। वह कार्य नहीं कर पा रहा है, जो उसे करना चाहिए। करना भी चाहता है तो भटक जाता है। बहुत कुछ पाने की लालसा में उसे कुछ नहीं मिल पा रहा है। ऐसा क्यों है, इस बारे में न कोई सोचने को तैयार है और न ही कुछ ऐसा पा रहा है कि उसके जीवन को सार्थकता मिले;अब यही देखिए। एक छोटा सा उदाहरण। किसी युवक को मनचाही मंजिल न मिली तो वह खुदकुशी कर लेता है। उसे सब कुछ चाहिए लेकिन उसे पाने के लिए जो श्रम व त्याग की अपेक्षा है, वह उससे नहीं हो पाता। यहीं कुंठा जन्म लेती है। रोज ऐसी घटनाएं सुनने व देखने को मिलती हैं, जब लोग मनचाहा हासिल न कर पाने से परेशान होकर अपना जीवन समाप्त कर लेते हैं। कोई पंखे से लटक जाता है, कोई ट्रेन के नीचे लेट जाता है, कोई सल्फास की गोलियां गटक जाता है, तो कोई बहुमंजिली इमारतों से छलांग लगा लेता है। तरीका कुछ भी होता है लेकिन उसका परिणाम एक ही होता है, जीवन की समाप्ति। अब तो मां-बाप बच्चों को कुछ कहते हुए डरने लगे हैं कि कहीं उनका बच्चा कुछ कर न बैठे। यह डर आज ही पैदा नहीं हुआ है। एक लम्बे समय का अंतराल बीतने के बाद फिजाओं में इस तरह की सनसनी व्याप्त हो गई है जो लोगों को जीवन की सार्थकता से दूर धकेल रही है। इसकी चपेट से बचना आसान नहीं है लेकिन कठिन भी नहीं है। पहले संयुक्त परिवार हुआ करते थे। घर के बड़े-बूढ़े बच्चों में समझदारी आने से पहले उन्हें जीवन के बारे में बहुत कुछ बताया करते थे; वह अकेला जीवन रहकर जीवन कैसे जिएगा, इसके लिए तैयार करते थे। उन्हें पता था कि एक दिन वह संतान को छोड़कर चले जाएंगे। उनकी संतान अकेले रह जाएगी। जीवन अकेले ही जीना पड़ेगा। इसलिए वह उसे जीवन जीने लायक बनने में मदद करते थे। अब ऐसा नहीं रहा। बच्चा चलने लायक हो गया तो उसे स्कूल भेज दिया। उनके पास समय नहीं है कि वह बच्चे को अपने पास रखकर जीवन जीने के लिए जरूरी बातें बता सकंे। अगर खुदकुशी की परिस्थितियों की बात करें तो समाज मे युग-युगांतरों से रही है। कई काबिल लोगों ने भी खुदकुशी की है लेकिन ऐसी घटनाआंे को दुर्लभ माना जाता था और उनके कारणों को तलाशा जाता था। ऐसी दुर्लभ घटनाओं के भी उदाहरण हैं। प्रसिद लेखक हेमिन्वे जिन्होंने ओल्ड मैन एंड द सी जैसा आशा का संचार करने वाला अद्भुद उपन्यास लिखा लेकिन अंत में उन्होंने भी न जाने किन तनावों अथवा अवसाद के कारण खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली। भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहे गए। उन्होंने दुनिया को राह दिखाई। रामराज की स्थापना की लेकिन न जाने कौन से ऐसे कारण रहे होंगे कि उन्होंने सरयू में जल समाधि लेकर अपना जीवन समाप्त कर लिया। यह बड़ा पेचीदा मनोविज्ञान है। लगता है कि दिनोंदिन लोग अकेले होते जा रहे हैं। अब समाज अथवा परिवार में ऐसे लोग कम होते जा रहे हैं, जो किसी के कुछ ऊंच-नीच सोचने पर कह सकें-बड़ा आया समझदार बनने, देंगे कान के नीचे खींच के एक। मानना होगा कि जीवन एक यात्रा है। हम सभी यहां के यात्री है। जो इसके यथार्थ को समझ लेता है, जीने का सही अर्थ जान लेता है, वह सफल हो जाता है। आज प्रगति के साथ-साथ जीवन और समाज में तमाम तरह की विसंगतियां आती जा रही हैं। तमाम प्रकार की बुराइयों से मनुष्य घिरता जा रहा है। परिस्थितियां कुछ ऐसी बन रही हैं कि तमाम सफल लोग भटकाव के शिकार हो रहे हैं। वह बुराइयों के शिकार आसानी से बने जा रहे हैं। इसका असर शासन सत्ता में ऊंचे बैठे लोगों पर ज्यादा दिखाई दे रहा है। इससे बचा जा सकता है। बशर्ते मनुष्य चेतना का सही इस्तेमाल करें। यह जिंदगी की सच्चाई है कि सब कुछ नष्ट हो जाने के बाद भविष्य बचा रहता है। इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए। ठोकर लगने के बाद संभलने की क्षमता समाज में ही हासिल होती है। कवि रवीन्द्र प्रभात की कुछ पंक्तियां इस संदर्भ में बड़ी मौजूं हैं- ‘हंसोगे, रोओगे, गुनगुनाओगे/जिंदगी के मायने समझ जाओगे/मिल जाएगी मोती तुम्हें भी, तब/जब समुद्र में गहरे उतर जाओगे/मां कहती है अक्ल आ जाएगी/जब किसी मोड़ पर ठोकर खाओगे।’