Aug 22, 2017

सोचिए तो सही, यह दल बदल है या दलदल!

जरा सोचिए....77
सोचिए तो सही, यह दल बदल है या दलदल!
-संतराम पाण्डेय-
भाजपा में बड़ी गहमागहमी का माहौल है। कारण है दूसरी पार्टियों के नेताओं को पार्टी में शामिल होना। दशकों से पार्टी में सेवा भाव और निष्ठा से जुड़े कार्यकत्र्ताओं में आक्रोश फैल रहा है। ऐसे दूसरे दलों के नेता जिन्हें न तो पार्टी कभी पचा पाई और न ही वे तथाकथित नेता पचा पाए, अब वह पार्टी की शरण में आ रहे हैं। जिस पार्टी का विरोध करने का जिन्होंने कोई अवसर नहीं छोड़ा,  भला जमीन से जुड़ा कार्यकत्र्ता कैसे पचा सकता है? प्रदेश स्तर के किसी नेता का मामला हो तो स्थानीय नेताओं का कोई मतलब नहीं, लेकिन स्थानीय स्तर के किसी नेता को पार्टी में शामिल करने का मसला हो तो स्थानीय नेता इसे अपनी उपेक्षा न मानें तो क्या करें?
    केन्द्र और प्रदेश की सत्ता पर काबिज भाजपा की तरफ जिस प्रकार धुर विरोधी नेताओं की आस्था ङ्क्षखची चली आ रही है, उससे अब पार्टी से जुड़े लोग भी हैरान हैं। पार्टी के भीतर भी आवाजें उठने लगी हैं। स्थानीय स्तर पर भाजपा में लगातार लोग शामिल हो रहे हैं। शामिल होने वालों का अपना नजरिया है कि वह किस राजनीतिक दल में रहना चाहते हैं लेकिन जिस पार्टी में जा रहे हैं, उसे तो यह सोचना ही पड़ेगा कि जो उनके दल में आ रहा है, वह इस काबिल है भी या नहीं। व्यापारी राजनीति से जुड़े संगठन के अहम् पद पर मौजूद ऐसे व्यापारी को पार्टी में शामिल कर लिया गया जिसे पार्टी की स्थानीय इकाई भी पसंद नहीं करती। ऐसा व्यक्ति, जिसकी पार्टी का ही पता न हो, उसे कोई पार्टी कैसे अपने पास ले सकती है। मौकापरस्त लोगों से भाजपा ने हमेशा दूरी बना कर रखी, लेकिन अब जिस प्रकार भाजपा मौकापरस्त लोगों को पार्टी में ठिकाना मिल रहा है, उससे पार्टी से जुड़े कत्र्तव्य निष्ठ, संगठन निष्ठ और नेतृत्व निष्ठ कार्यकत्र्ताओं में हैरानी देखी जा रही है।
   भाजपा एक अनुशासित और संस्कारित पार्टी मानी जाती है। पार्टी के कार्यकत्र्ता अन्य दलों की अपेक्षा खासे अनुशासित माने जाते हैं। इसलिए वह सार्वजनिक रूप से कोई प्रतिक्रिया नहीं देते लेकिन जब अनुशासन के नाम पर पार्टी में अन्य दलों के कु-संस्कार प्रवेश करने लगें तो पार्टी के निष्ठावान कार्यकत्र्ताओं में हैरानी स्वाभाविक है। सत्ता में होते हुए भी आजकल पार्टी के कार्यकत्र्ताओं में एक तरह की मायूसी देखी जा रही है। सरकारी महकमों में उनकी ही सुनवाई नहीं होने की खबरें आ रही हैं। दूसरी तरफ पार्टी में पार्टी की सोच के प्रति संदिग्ध लोगों को शामिल किए जाने से उसकी हैरानी बढ़ रही है। बता दें कि समाज में ऐसे तत्व भी हैं जो धुर मौकापरस्त हैं, जहां सरकार बदली, उनकी आस्था बदल जाती है। कांग्रेस, सपा, बसपा, आप पार्टी से जुड़े रहे लोगों को पार्टी में शामिल कर लिया जाना ऐसे सवाल भी खड़ा कर रहा है कि कहीं अन्य दलों की तरह इस अनुशासित पार्टी में भी दाग न लग जाए? राजनीति में इस तरह की भागमभाग राजनीतिक शुचिता को भी प्रभावित करती है। राजनीति में जिस तरह आस्था रातोंरात बदल रही है, उससे लोकतंत्र के प्रति आस्था का पाखंड अर्थहीन होता दिखाई देने लगा है। राजनीतिक शुचिता, जिसके लिए भाजपा जानी जाती है, उस पर भी सवाल उठने लगे हैं। जिस तरह की सूचनाएं मिल रही हैं, उससे यह भी संकेत मिल रहे हैं कि पार्टी से ५० सालों से जुड़ा निष्ठावान कार्यकत्र्ता स्तब्ध है।
   आस्था डगमगाती है तो दल बदल जाते हैं। पहले चुनावों के पहले आस्था बदला करती भी लेकिन अब इसका कोई मौसम नहीं। यह कभी भी और कहीं भी बदल सकती है। राजनीति में इसका खास महत्व है। आस्था बदलती है तो दिल बदले या न बदले लेकिन दल जरूर बदल जाते हैं। मेरठ में तो ऐसा होता दिख रहा है। यूपी में अब न तो लोक सभा के चुनाव चल रहे हैं और न ही विधान सभा के, लेकिन राजनीति से जुड़े लोगों की आस्था निरंतर बदल रही है। इससे साफ हो गया है कि अब राजनीति में आस्था डगमगाने का कोई मौसम नहीं होता। जब भी मौका मिलता है आस्था बदल जाया करती है। यूपी में पिछले दिनों कई एमएलसी जैसे पदों पर रहे धुर विरोधी पार्टी से जुड़े नेताओं की आस्था बदली और दल बदल गए। राजनीति में आस्था बदलने का कारण सत्ता मानी जाती है। यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि जो आस्था बदल रही है, वह सत्ता को लेकर है पार्टी को लेकर नहीं। पार्टी के सिद्धांत और नीति उन लोगों के लिए महत्व नहीं रखते जो किसी अन्य दल में पले-बढ़े हों, उन्हें तो सत्ता के संरक्षण की चाह होती है और दल बदल कर वह पा लेते हैं। इसलिए राजनीतिक शुचिता की प्रखर समर्थक भाजपा जैसी पार्टी को ऐसे फैसलों पर विचार तो करना ही चाहिए। जिस तरह भाजपा की तरफ आकर्षण बढ़ रहा है, कहीं वह भविष्य में भाजपा के लिए संकट का कारण न बन जाए।