Nov 18, 2012

कोई इनकी भी सुने

     कोई इनकी भी सुने
  -संतराम पाण्डेय-
'एक दिन बादशाह अकबर ने दरबार में आते ही दरबारियों से पूछा- किसी ने आज मेरी मूंछें नोचने की जुर्रत की। उसे क्या सजा दी जानी चाहिए। दरबारियों में से किसी ने कहा- उसे सूली पर लटका देना चाहिए, किसी ने कहा उसे फाँसी दे देनी चाहिए, किसी ने कहा उसकी गरदन धड़ से तत्काल उड़ा देनी चाहिए।
बादशाह नाराज हुए। अंत में उन्होंने बीरबल से पूछा- तुमने कोई राय नहीं दी! बादशाह धीरे से मुस्कराए, बोले-क्या मतलब? जहाँपनाह, खता माफ  हो, इस गुनहगार को तो सज़ा के बजाए उपहार देना चाहिए, बीरबल ने जवाब दिया।  जहाँपनाह, जो व्यक्ति आपकी मूँछें नोचने की जुर्रत कर सकता है, वह आपके शहजादे के सिवा कोई और हो ही नहीं सकता, जो आपकी गोद में खेलता है। गोद में खेलते-खेलते उसने आज आपकी मूँछें नोच ली होंगी। उस मासूम को उसकी इस जुर्रत के बदले मिठाई खाने की मासूम सज़ा दी जानी चाहिए, बीरबल ने खुलासा किया। बादशाह ने ठहाका लगाया और अन्य दरबारी बगलें झांकने लगे।यह एक छोटी सी कहानी है जो साफ संकेत देती है कि मासूमों के बारे में कोई योजना बनाने के पहले योजनाकारों के दिलोदिमाग में मासूमों जैसी मासूमियत होनी चाहिए। हमारे शहर में इस हफ्ते कुछ ऐसी घटनाएं हुईं, जो सीधे मासूम बच्चों से ताल्लुक रखती थीं। कुछ में उनकी बेहतरी का प्रदर्शन था तो कुछ घटनाएं ऐसी थीं कि उनमें उनकी बेबसी और लाचारी टपकती थी। घुमक्कड़ ने जब इन घटनाओं का पोस्टमार्टम किया तो कई रोचक बातें सामने आईं। पहले उन घटनाओं पर प्रकाश डालते हैं।
      पहली घटना बेगमपुल की है जिसमें एक मासूम सी दिखने वाली बच्ची ने एक दुकान से कुछ सामान उठा लिया और भागने लगी। कुछ लोग उसके पीछे दौडे लेकिन वह उनकी पकड में न आई। जाहिर है कि बच्ची ने ऐसी हरकत इसलिए ही की होगी कि इस भरे-पूरे संसार में अभाव का आकाश उसके सामने फैला होगा और वह जो चाहती होगी, वह उसे नहीं मिलता होगा। एक तरफ दीवाली जैसे त्यौहार की तैयारियां हैं। बच्चे अपने मां-बाप से जिद करके अथवा फरमाइश करके कुछ न कुछ खरीद रहे हैं और उन्हें वह सब कुछ हासिल हो रहा है जो वह चाहते हैं लेकिन इसी शहर में बच्चों का एक ऐसा भी तबका है जो कुछ पाने की लालशा तो रखता है लेकिन पाने का हक नहीं। इसलिए उसने कुछ पाने का ऐसा तरीका अपना लिया जिसे समाज अव्यावहारिक अथवा समाज विरोधी कृत्य मानता है। इसी तरह कुछ मनचाहा पाने के लिए शहर की सडकों पर सैकडों बच्चे भीख मांगते हुए भी नजर आते हैं। कुछ को भीख मिलती है तो कुछ को झिडकियां।
एक दूसरी घटना बाईपास स्थित एक रेस्टोरेंट की। एक मेज पर बैठे चार लोगों को चाय और कुछ नाश्ता देने आये एक मासूम से बच्चे से जब ग्राहकों ने पूछा कि तुम स्कूल नहीं जाते तो उसने ना में सिर हिला दिया और नाश्ते के बाद कप-प्लेट उठाकर चल दिया। जाहिर है उसे डर था कि यदि वह ग्राहकों से ज्यादा बातचीत करेगा तो मालिक उसे पीटेगा।
इन घटनाओं ने घुमक्कड़ को झकझोर दिया। केन्द्र सरकार का शिक्षा का अधिकार के तहत जारी किया गया अधिनियम २००९ याद आ जाता है जिसमें व्यवस्था दी गई है कि सभी स्कूलों को २५ फीसदी गरीब बच्चों को एडमीशन देना होगा लेकिन सवाल है कि इसका पालन कौन कराए? एक सवाल यह भी है कि मासूमों को परवरिश और शिक्षा की बयार क्यों न मिले? यह सवाल आज के समाज में शत-प्रतिशत जायज है। बच्चों की शिक्षा और उनकर परवरिश बडी जिम्मेदारी का मसला है। इसमें सरकार को सख्ती से दखल देने का इरादा बना लेना चाहिए। यह देश के एक भावी नागरिक के भविष्य का सवाल है। इसे नजरंदाज कैसे किया जा सकता है।  कुछ लोग यह सवाल उठा सकते हैं कि सरकार के ऊपर ऐसे मुद्दे डालना व्यर्थ है। बालश्रम रोकने की जिम्मेदारी सरकार पर ही है लेकिन संबंधित महकमा अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पा रहा है। श्रम विभाग को इस तरह के आपरेशन चलाने चाहिए जिसमें श्रम कर रहे अथवा भीख मांग रहे बच्चों की जिंदगी में शिक्षा की अलख जगाई जा सके। आज श्रम विभाग अपनी जिम्मेदारियों से भाग रहा है तो भविष्य में कोई और विभाग अपनी जिम्मेदारी निभाएगा ही, इसकी  गारंटी ते नहीं है लेकिन कुछ तो किया ही जा सकता है और अच्छा तो यह होगा कि शहर के संपन्न लोग इस कार्य में अपनी भागीदारी निभाएं।