Nov 25, 2011

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Nov 13, 2011

आर्थिक आजादी के सपने का भटकाव

संतराम पाण्डेय-
आज देश तरक्की कर रहा है। विश्व में भारत की खास पहचान है। जिस रफ्तार से देश तरक्की कर रहा है, उसी रफ्तार से कुछ ऐसी चीजें छूटती जा रही हैं, जो देशवासियों के हित से गहराई से जुड़ी हैं। इसी तरक्की की रफ्तार के बीच जब यह खबर आई कि देश के लोग शहर में ३२ रुपए और गांव में २६ रुपए में गुजारा कर सकते हैं तो देश का आम आदमी सन्न रह गया। वह सोचने लगा कि क्या हमारे देश को आजाद कराने वालों ने आजाद भारत का जो सपना देखा था, वह यही था जिसमें यह परिकल्पना की जा रही है। एक बात तो सत्य है कि आजादी के बाद देश के शहरों का विकास हुआ है और गांव शहर के निकट आए हैं। एक तरह से देखा जाए तो गांवों का भी शहरीकरण हुआ है लेकिन लोगों की आर्थिक आजादी का जो सपना आजादी की लड़ाई की पीढ़ी के नेताओं ने देखा था, उससे आज हम भटक गए हैं। आर्थिक आजादी के मुद्दे पर कमजोरी आई है। आज ३२ और २६ रुपए में गुजारा कर लेने की जो कल्पना की जा रही है, यह इस बात का प्रमाण है। धन की जो असमान पहुंच हुई है, उसने देशवासियों को इस हालत में पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दरअसल देश को आजाद कराने वालों का सपना क्या था, उस पर हम नजर डालें तो बात काफी कुछ साफ हो जाती है।
आजादी के बाद गांधी जी ने नेहरू को एक पत्र लिखा। उसमें गांव के विकास की कल्पना का ताना-बाना प्रदर्शित था। पत्र का मजमून कुछ इस प्रकार था-'....तुम्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि मेरी कल्पना में वही ग्रामीण जीवन है जो आज हम देख रहे हैं। मेरे सपनों का गांव अभी तक मेरे विचारों में ही है। मेरे आदर्श गांव में बुद्धिमान मानव होंगे। वे जानवरों की तरह, गंदगी और अंधकार में नहीं रहेंगे। उसके नर-नारी स्वतंत्र होंगे और संसार में किसी के भी सामने डटे रहने की क्षमता वाले होंगे। सबको अपने हिस्से का शरीर श्रम करना होगा।Ó पंडित नेहरू ने इस पत्र का जो जवाब लिखा, अब उसके कुछ अंश- '.....मेरी समझ में नहीं आता कि गांव आवश्यक तौर पर सत्य और अहिंसा का साकार रूप क्यों होना चाहिए। सामान्यत: गांव बुद्धि और संस्कृति की दृष्टिï से पिछड़ा हुआ होता है और पिछड़े हुए वातावरण में कोई प्रगति नहीं की जा सकती। संकीर्ण विचारों के लोगों के लिए असत्यपूर्ण और हिंसक होने की संभावना ज्यादा रहती है। हमें गांव को शहर की संस्कृति के अधिक निकट पहुंचने के लिए प्रोत्साहन देना पड़ेगा। अक्तूबर १९४५ में भी गांधी जी ने पंडित नेहरू को एक पत्र लिखा था। उनका यह पत्र भारत और उसके गांव की परिकल्पना पर था। गांधी जी ने लिखा था- 'हमारे दृष्टिïकोण में जो भेद है, उसके बारे में लिखना चाहता हूं। यदि वह भेद बुनियादी है तब तो जनता को वह मालूम हो जाना चाहिए। उसे अंधकार में रखने से हमारे स्वराज्य के कार्य को हानि पहुंचेगी।Ó पत्र की इन पंक्तियों से साफ होता है कि गांधी जी के मन में स्वराज्य का जो खाका था, उससे पंडित नेहरू इत्तेफाक नहीं रखते थे और यह भी कि यह बात दोनों को पता थी लेकिन दोनों ही विचार-विमर्श के माध्यम से किसी ऐसे नतीजे पर पहुंचना चाहते थे जो कि देश की जनता के लिए हितकर हो। अब जब हम इतने दिनों बाद इन पत्रों के मजमून को देश की धारा की कसौटी पर परखते हैं तो दिखता है कि गांधी जी के विचार कहीं पीछे छूट गए हैं और पंडित नेहरू के विचार प्रभावी हैं। हम नेहरू के विकास की अवधारणा के करीब पहुंच रहे हैं। गांव को शहर बना रहे हैं जबकि संकीर्ण विचार गांव हो या शहर, कहीं भी पल और पनप सकते हैं। आज कथित विकास की दौड़ में आगे निकल रहे शहर हमारे देश के गांवों से सांस्कृतिक रूप से अभी भी पिछड़े हुए ही हैं। अब जिस विकास की रफ्तार को सरकारें हवा और पानी दे रही हैं, उसमें हैरानी की बात यह है कि भारत की७० फीसदी ग्रामीण आबादी सांस्कृतिक रूप से भी पीछे छूटती जा रही है। व्यवस्था भी इससे प्रभावित है। जातिवाद की राजनीति ने भी उसका रूप बदलने का काम किया है। वस्तुत: अब पिछड़ेपन की परिभाषा को बदलने की जरूरत है। आज जब ग्रामीण क्षेत्रों के विकास की बात होती है तो व्यवस्था ही अवरोध के रूप में खड़ी दिखाई देती है और यहीं गांधी जी के स्वराज का सपना टूटता हुआ दिखाई देता है। प्रति व्यक्ति आय में दुनिया में 147 वें स्थान पर। 29 करोड़ प्रौढ़ आज भी अशिक्षित हैं। 5 करोड़ बच्चों ने प्रारंभिक स्कूल का मुंह भी नहीं देखा है। 14 करोड़ लोगों को प्राथमिक स्वास्थ सेवाएं तक उपलब्ध नहीं हैं। विशिष्टï लोगों की सुरक्षा पर 361 करोड़ रुपये खर्च होता है। मंत्री परिषद् पर 50 करोड़ 52 लाख रुपये की बजट में व्यवस्था है। सरकार चलाने से सात गुना अधिक इन मंत्रियों की सुरक्षा पर खर्च है। देश की दशा सुधारने की जिम्मेदारी मूल रूप से सरकारों की है, वह चाहे राज्य की सरकारें हों अथवा देश की। जनप्रतिनिधि आज जिस दिशा में चल रहे हैं और राजनीति उन्हें जिस धारा की ओर बहा रही है, उसमें यह कम ही संभव दिखता है कि वह इस व्यवस्था से देश को उबारने में कामयाब होंगे। जनप्रतिनिधियों को चाहे वे पक्ष के हो या विपक्ष उन्हें उस जनता के दर्द को, उसके दुख को समझना होगा और लोकतंत्र के मंदिर में एक सार्थक चर्चा करनी होगी। आवश्यक चीजों और पेट्रों पदार्थो की कीमतों में वृद्घि की जिम्मेदारी से सरकार बच नहीं सकती। किसानों की आत्महत्या हो, भूख या गरीबी हो, बेरेाजगारी हो.... उससे सरकार अपना पल्ला झाड़ नहीं सकती। ऐसा क्यों है कि अनाज का इतना अधिक उत्पादन हो कि वह गोदामों में न अट पा रहा हो, अनाज सड़ रहा हों और उधर लोग बेकाबू महंगाई से त्रस्त हों। महंगाई की समस्या लगातार बनी हुई है और सरकार का रुख कुछ ऐसा है कि हम क्या करें? आंकड़े उठा कर देखकर देख लीजिए या याद पर ही जोर डालिए १९९९ में गेहंू सात रुपये प्रति किलो की दर से बिक रहा था। आज १७-१८ रुपये किलो गेहूं बिक रहा है। आम आदमी का साधारण चावल इन्हीं दिनों आठ रुपये किलो था, पर आज १६-२० रुपये प्रति किलो बिक रहा है। जानकारों का बताना है कि हमारे खान-पान की सामग्री की कीमत एक साल में २० प्रतिशत के लगभग बढ गई है। अर्जुन सेन गुप्त एवं अन्य जानकारों के यह कहने से क्या फर्क पड़ता है कि हमारे देश में ८४ करोड़ लोगों की प्रतिदिन औसत आय बीस रुपये है। यह आइने की तरह साफ है कि हमारे देश के तत्कालीन कर्णधारों का यह सपना नहीं था कि जिसके हाथ में देशवासी अपनी तकदीर सौंप रहे हों, वह घपले और घोटाले करे तथा जेल की शोभा बढ़ाए। आज देश के कर्णधारों को ही यह सोचना होगा कि देश को इन परिस्थितियों से उबारने का रास्ता क्या हो?

सांप गुजरने के बाद लकीर की पिटाई

-संतराम पाण्डेय-
अध्यात्म के देश में अब एक अजीब तरह का बदलाव आ रहा है। आध्यात्मिक आयोजनों में भगदड़ मच रही है और लोग दब और कुचल कर प्राण त्याग कर रहे हैं। अभी हाल ही में हरिद्वार में एक आयोजन में भगदड़ हुई जिसमें अनेक लोगों की जानें गई। अशांत मनुष्य शांति के लिए भटक रहा है। एक समृद्ध आध्यात्मिक देश में इस तरह की घटना अत्यंत दुखद है। इसके पूर्व भी देश में अनेक घटनाएं हो चुकी हैं। इसलिए और दुखद यह है कि इन घटनाओं को रोकने के लिए कोई सार्थक उपाय नहीं किए गए। सिवाय एक दूसरे पर दोषारोपण के। कथा और प्रवचन हमारी परंपराओं में शामिल हैं। इसलिए समाज के हर व्यक्ति का दायित्व है कि शांति की तलाश में जुटे हर व्यक्ति की सुरक्षा समाज और प्रशासन भी करे। ऐसे आयोजनों में व्यवस्था के लिए प्रशासन का दायित्व है कि वह स्वत: स्फूर्त हो व्यवस्था में भागीदारी करे। ऐसा न होने के पीछे कारण यह लगता है कि हम कहीं न कहीं अध्यात्म से विमुख हो रहे हैं।
अध्यात्म को लेकर अब तरह-तरह की चर्चाएं भी होती हैं लेकिन उनका कोई सार्थक हल नहीं निकल रहा है। परिणाम यह है कि अध्यात्म से जुड़े लोगों में एक अजीब तरह का भटकाव आ रहा है। अध्यात्म से जो शांति मिलनी चाहिए, वह नहीं मिल रही है। अध्यात्म को लेकर एक परिवर्तन और देखने को मिल रहा है। वह यह कि आध्यात्मिकजनों में एक अजीब किस्म की बेचैनी परिलक्षित हो रही है। नतीजा यह कि उनको शांति के लिए भटकना पड़ रहा है। दरअसल इस भटकाव के पीछे एक बात यह भी है कि अध्यात्म की तरह-तरह की परिभाषाएं गढ़ ली गईं हैं। इसलिए यह जरूरी है कि पहले अध्यात्म की सही परिभाषा समझें। अध्यात्म शब्द आत्म में अधि उपसर्ग लगाकर बना है जिसका अर्थ है आत्मा को ऊपर उठाना अथवा आत्मोन्नति। जो व्यक्ति परम-आत्मा में स्वयं को सम्मिलित मानता है वह अध्यात्म के स्वयं को करीब मानता है। आत्मिक उन्नत्ति प्राप्त करने के बाद यह महसूस होने लगता है कि परमात्मा का ही अंश हममें विद्यमान है। इसलिए हम परमात्मा के ही अंश हैं। यह तथ्य स्पष्टï होने के बाद व्यक्ति वही कुछ करता है जो उसकी आत्मा निर्देशित करती है और आध्यात्मिक व्यक्ति मानते हैं कि आत्मा का निर्देशन कभी गलत नहीं होता। समाज में आज तरह-तरह की भ्रांतियां फैली हैं। इन भ्रांतियों से छुटकारा पाने के लिए जरूरी है कि व्यक्ति आध्यात्मिक हो। अध्यात्म और समाज का बड़ा गहरा संबंध है। समाज अध्यात्म के बिना पंगु है। बिना अध्यात्म के उसे सही निर्देशन नहीं मिल सकता। परिणामस्वरूप उसमें आसुरी प्रवृत्तियां जन्म लेने लगती है और वह असुरों जैसा व्यवहार करने लगता है जो कि समाज विरोधी है। एक तरह से यह कहा जाए कि समाज अध्यात्म की कसौटी है और अध्यात्म समाज की आत्मा तो उचित ही होगा। अध्यात्मविहीन समाज में जब आसुरी प्रवृत्तियां बढऩे लगती हैं तो सामाजिक और मानवीय मूल्यों तथा सभ्यता और संस्कृति का पतन होने लगता है। त्रेता युग में श्रीराम का अवतार ऐसे वक्त हुआ जब आध्यात्मिक शक्तियों का पूरी तरह पतन होने लगा था। उन्होंने अध्यात्मविहीन समाज में आसुरी प्रवृत्तियों को नष्टï करने का बीड़ा उठाया। इसका परिणाम यह हुआ कि समाज फिर से अध्यात्म के साथ चलने लगा।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में स्पष्टï बताया है कि अध्यात्म से जुड़े रहने के लिए सबसे आसान उपाय क्या हैं? कलयुग में केवल राम-नाम का जप ही एक आधार बताया गया है। महाकवि दूरदृष्टïा थे। शायद उन्होंने समझ लिया था कि कलयुग में मनुष्य के पास इतना वक्त नहीं रहेगा कि वह वर्षों तो क्या घंटे भर भी अपनी आत्मिक शांति के लिए अध्यात्म से जुड़े रहने का उपाय कर सके। इसीलिए नाम को ही उन्होंने आधार बताया। अध्यात्म से ही समाज में नैतिकता की स्थापना होती है। एक अध्यात्मविहीन समाज के अनैतिक होने की शत-प्रतिशत संभावना बनी रहती है।
द्वापर में गुरु द्रोणाचार्य ने पांडव और कौरवों को नैतिकता का पहला पाठ पढ़ाते हुए कहा था कि सत्यम् वद अर्थात् सत्य बोलो। उनका मानना था कि सत्य के साथ ही नैतिकता की स्थापना हो सकती है। इतिहास साक्षी है कि समाज नैतिकता के बल से ही प्रतिष्ठित होता है। जिन्होंने उनकी शिक्षा को ग्रहण किया वह नैतिक बने और जो नैतिकता का यह पहला पाठ नहीं पढ़ सके वह अनैतिक हो गए और उन्हीं का विनाश हुआ। अनैतिक समाज में लोभी, कपटी, झूठे, आतताई और निर्लज्ज व्यक्तियों का बोल-बाला हो जाता है जिससे अध्यात्म समाप्त हो जाता है। एक नैतिक व्यक्ति अध्यात्म को जीवित रखता है। स्वामी विवेकानंद ने भी नैतिकता का यही पाठ शिकागो में पढ़ाया। हमारे अनेक महापुरुषों का उद्देश्य यही रहा है कि समाज में अध्यात्म की स्थापना हो और समाज नैतिक बने। नैतिकता की कोई पाठशाला नहीं होती परिवार व्यक्ति की प्रथम पाठशाला है और मां प्रथम शिक्षक है। परिवार ही समाज की प्रथम इकाई हैं। जहां से व्यक्ति की शिक्षा-दीक्षा शुरू होती है। इसीलिए अध्यात्म और नैतिकता का पाठ पढ़ाने में माताओं की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। इसीलिए समाज की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह मातृ शक्ति के उत्थान के लिए कदम उठाए। आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर ने अभी हाल ही में कहा है कि सिर्फ अध्यात्म से ही भ्रष्टïाचार को समाप्त किया जा सकता है। उन्होंने स्पष्टï कहा कि अपनत्व और अध्यात्म का अभाव है जिसकी वजह से भ्रष्टïाचार पनप रहा है। हम अपनी परंपराओं, सभ्यता और संस्कृति पर निगाह डालते हैं तो साफ दिखाई देता है कि हमारी सभ्यता और संस्कृति तथा परंपराएं बड़ी समृद्ध रही हैं। अध्यात्म के कारण ही भारत को विश्व गुरु का दर्जा मिला था। आज जगह-जगह प्रवचन और कथाओं का आयोजन किया जाता है। हजारों-लाखों लोग उसमें एकत्र होते हैं। तर्क यह होता है कि यह सब अध्यात्म और नैतिकता की स्थापना के लिए हो रहा है लेकिन समाज पर इनका असर नहीं पड़ रहा है। न समाज आध्यात्मिक बन पा रहा है और न ही नैतिक। ऐसा आभास होता है कि हमारे कर्म में कहीं न कहीं त्रुटि है जिसे हमें खोजना चाहिए। भौतिक उन्नति से मनुष्य संतुष्टï नहीं हो सकता। आध्यात्मिक उन्नति जरूरी है और उसी से समाज नैतिक बनेगा। हरिद्वार गायत्री पीठ में हुई घटना के लिए अब दोषियों की तलाश हो रही है। यानि सांप के गुजर जाने के बाद लकीर पीटी जा रही है। वस्तुत: इस घटना के लिए दोषी हमारी वह व्यवस्था है जो अध्यात्म और परंपराओं से विमुख होती जा रही है। वास्तव में अध्यात्म हममें रचा-बसा है। इससे विमुख होकर केवल कष्टï ही मिल सकता है और अध्यात्म युक्त समाज नैतिकता के सहारे तरक्की की राह पर अग्रसर रहेगा।