Oct 4, 2018

                                                                                                                                हमारे चुनिंदा व्यंग्य

१०. पत्रकारों की सद्गति
मैं कई दिन से इसी उधेड़बुन में लगा हुआ था कि पत्रकारों पर कुछ लिखा जाना चाहिए या नहीं। अन्तत: जब कश्मीर में पत्रकारों के साथ होने वाले सद्व्यहारों पर विभिन्न अखबारों में रिपोर्ट पढ़ीं तो मन में आया कि पत्रकारों के साथ होने वाले दुखद-सुखद हादसों को भी इाईलाइट किया ही जाना चाहिए। अभी इसी पखवाड़े एक रपट आयी थी कि कश्मीर गये कई पत्रकार साथियों के साथ कुछ कथित फौजियों ने दुव्यर्वहार किया। अगर किसी के साथ कोई बुरा आचरण करता है, तो पत्रकार भाई अपनी भाषा में उसे दुव्र्यवहार की संज्ञा देते हैं।
पत्रकारिता के क्षेत्र में महारत रखने वालों को मैंने कहते सुना है कि जो पत्रकार पिट गया, लुट गया, जेल चला गया अथवा किन्हीं कारणों से जिसको अपहृत कर लिया गया, उसका सौभाग्य समझो। यह मेरा दुर्भाग्य ही है कि अब तक अपने पत्रकारिता के अल्प जीवन काल में न पिटा, न जेल गया। हां, एकाध बार अपहृत जरूर कर लिया गया। पर मेरा दुर्भाग्य फिर भी हाईलाइट न हो सका।
सच तो यह है कि मुझे सुर्खियों में बने रहना कभी आया ही नहीं। यदि इस कला में पारंगत होता तो क्या अखबारनवीसी ही करता रहता। अब तक तो उदयन शर्मा की सी सद्गति को प्राप्त होकर अपनी दुर्गति करवा के किसी ऊंची कुर्सी पर बैठकर अपनी दाढ़ी संवार रहा होता। पर मुझे यह कला कभी आयी ही नहीं। मैं अपने को जिन्दगी की इस दौड़ में इसलिए भी फिसड्डी पाता हूं, क्योंकि दुनियादार होने का अर्थशास्त्र मैं कभी समझ ही नहीं पाया। पर मेरा मामला तो खैर मेरा ही है-एक आवांतर प्रसंग।
बात पत्रकारों पर लिखने-न लिखने और उनके साथ होने वाले सद्आचरणों की चल रही थे। पत्रकार है ही उत्पीडऩ की चीज। जब तक इनका उत्पीडऩ न हो, पत्रकार स्वयं को कहीं न कहीं अधूरा पाता है। हर कार्य के पीछे किसी न किसी का हाथ होता है। मसलन पंजाब-कश्मीर के आतंकवाद को ही ले जीजिए। उसमें भी पाकिस्तान का हाथ है। चुनाव में कोई हार जाता है तो विपक्षी का हाथ होता है। पत्रकारों के उत्पीडऩों अथवा उनके साथ होने वाले सुखद-दुखद हादसों में किसका हाथ होता है, यह मैं आज तक न जान पाया। पता नहीं यह मेरी अल्पबुद्धि का प्रमाण है अथवा कुछ और।
खैर, अभी हाल ही में महामहिम राज्यपाल महोदय के एक सलाहकार माननीय सोनकर जी मेरठ पधारे। मेरठ में एक सर्किट हाउस हुआ करता है, जहां लोग आकर ठहरा करते हैं। कहा तो यह जाता है कि जो सर्किट हाउस में ठहरा करता है, वह वीआईपी होता है। सोनकर जी भी फिर वीआईपी ठहरे। हम पत्रकारों की एक खास कमजोरी हुआ करती है कि हम हर वीआईपी पर नजर रखते हैं।
वीआईपी आता है। सर्किट हाउस में ठहरता है। हम पत्रकारगण वहां पहुंच जाया करते हैं। कुछ वीआईपी निमंत्रण देकर बुलाते हैं-कुछ नहीं भी बुलाते। न बुलाने को हम अन्यथा नहीं लिया करते और उसे कुछ कहने के लिए सर्किट हाउस में घेर लिया करते हैं। घिरा हुआ व्यक्ति कुछ न कुछ बोलता जरूर है। फिर वीआईपी क्यों न बोले। सोनकर जी आये। हम पत्रकारों ने घेर लिया। हमें गुस्सा तब आता है, जब वीआईपी नहीं बोलता। यह हमारी शान के खिलाफ हुआ करता है। सोनकर जी आये-बोले नहीं। पत्रकार कहते रहे कुछ तो बोलो, पर सोनकर जी को न बोलना था, न बोले। क्यों नहीं बोले? यह सवाल पेचीदा भी हो सकता है। पर यह हमारी समस्या नहीं थी। वह आये और खिसक गये। इसे हम पत्रकारगण अपमान मानते हैं कि कोई आये और बात न करे। इसे भी हम पत्रकारों ने अपना अपमान माना और अखबारों में लिखा भी।
इस अपमान को हम कैसे पर्दाश्त कर सकते हैं। पर अब तक यह पता नहीं चल पाया कि सोनकर जी द्वारा कराये गये इस तथाकथित अपमान के पीछे किसका हाथ हो सकता है। कुछ पत्रकार खोजी हुआ करते हैं। हमें पूरी उम्मीद है कि यदि खोजी पत्रकार सोनकर जी को सर्किट हाउस में खोज निकाल सकता है तो उस कारण को भी खोज निकालेंगे, जिसके कारण पत्रकारों का अपमान हुआ।
इस हादसे से मेरा मत भिन्न है। हादसे तो पत्रकारों की सद्गति के लिए हुआ करते हैं, ऐसा मेरा मानना है। कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन- सो मेरी तो पत्रकार भाईयों से गुजारिश है कि हम हादसों को अन्यथा न लें और आगे फिर योजना के मुताबिक सोनकर जी को घेरने का हौसला रखें। सुर्खियों में बने रहने के लिए ऐसे हादसे होते ही रहने चाहएि। ताकि पत्रकार भाई सद्गति प्राप्त कर सकें।



११.व्यंग्य
लड़कों को तो गच्चा खाना ही था
जैसी कि उम्मीद थी लड़कियां फिर लड़कों को धोखा दे गयीं। लड़के गच्चा खा गए। वह लड़कियों के पीछे मंडराते रहे और लड़कियां उनसे बेखबर पढ़ाई में लगी रहीं। अब लड़के उसी क्लास में फिर अपनी जड़ मजबूत करेंगे, पीछे से आयी नयी लड़कियों के साथ।
उ.प्र. माध्यमिक परीक्षा में लड़कियों ने लड़कों की अपेक्षा ज्यादा सफलता पायी है। स्पष्ट हो गया है कि लड़कियां होम वर्क में ज्यादा रुचि लेती हैं और लड़के फील्ड वर्क में। जो लड़के पास भी हुए हैं उन्हें कैसे माना जाए कि वह लड़कों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये जो लड़की नुमा लड़के होते है, वह पास हो जाते हैं। जिन्हें इस उम्र में लड़का होने का बोध होता है- वह फेल हो जाते हैं। सच है- लड़के ही फिसल रहे हैं- लड़कियां नहीं। लड़के फेल होने में आगे हैं-लड़कियां पास होने में। लड़कों का मुकाबला लड़कियां नहीं कर सकतीं।
लगातार फेल होने में कीर्तिमान बनाते आ रहे एक लड़के से पूछा- तुम लड़के लोग फेल क्यों ज्यादा होते हो। जवाब था लड़कियां कक्षा में डिस्टर्ब करती हैं। लड़कियां न हों तो वह डिस्टर्ब नहीं होंगे और पास हो जायेंगे। अब इन लड़कों को कौन बताए कि जिन्हें डिस्टर्ब होना ही है वह गली मौहल्लों से डिस्टर्ब होकर ही कक्षा में आयेंगे।
लड़कों का एक तर्क और है। लड़कियां बनने-ठनने में माहिर होती हैं। सजधज कर रहती हैं। अपनी लिखावट अच्छी रखती हैं। अपनी तरह हर शब्द को बना-ठना कर कापी पर लिखती हैं और लड़के खुद आवारा होते हैं- शब्दों को भी आवारा छोड़ देते हैं। क्या लिख रहे हैं- उन्हें खुद भी नहीं पता।
कई लड़कों से पूछने पर पता चला कि कोई लड़का फेल होने पर दुखी नहीं होता- इतना जरूर अफसोस होता है कि जिस रेखा, मीना, शशि, मीनू आदि के साथ उसने साल बिताए- वह बिछड़ गयीं। बिछोह का दु:ख होना स्वाभाविक है। लड़कों को शिकायत है कि धोखा देने में लड़कियां माहिर हैं। अगली कक्षा में हंसी खुशी चली जाती हैं- मुंह फेर कर देखना तक गवारा नहीं करतीं। लड़कों का मानना है कि ऐसी लड़कियां गृहस्थ जीवन में पति का साथ निभा पायंगी, उन्हें संदेह है।
कुछ ट्यूशन पढऩे वाले लड़कों से पूछा- बेटे, तुम्हारे साथ पढऩे वाली लड़कियां पास हो गयीं, तुम कैसे रह गये। लड़कों की शिकायत थी कि टीचर लड़कियों को क्लास में आगे बैठाते हैं। हम लड़के लड़कियों को देखते हैं और लड़कियां अपनी पढ़ाई को। लड़कों का मानना है कि लड़कियों को क्लास में व ट्यूशन में भी पीछे बैठाया जाना चाहिए। फिर कोई लड़का फेल नहीं होगा।
लड़कों ने दावा किया है कि यदि उन्हें डिस्टर्ब न किया जाए उनकी क्षमताओं के लिए चुनौती न खड़ी की जाए तो वह परीक्षा परिणामों में कीर्तिमान स्थापित कर सकते हैं। उल्लेखनीय है कि किसी भी स्थान पर पूर्व आयोजित कार्यक्रम के अनुरूप वह छेड़छाड़ में इतने व्यस्त हों जाते हैं कि उनको अपने शरीर का भी ख्याल नहीं रहता। वह विदेह हो जाते हैं। यदि शिक्षा के नाम पर उन्हें विदेह होने का मौका मिले तो वह क्या नहीं कर सकते किन्तु ये लड़कियां....।
इस सम्बन्ध में एक और दिलचस्प तथ्य प्रकाश में आया है। लड़कियों का कहना है कि लड़के चीटिंग ज्यादा करते हैं किन्तु शोर करके अपनी पोल खुद खोल देते हैं। लड़कियां ऐसा नहीं कर पातीं। सो उनका परिणाम अच्छा आता है। लड़के मजनूं बनने के लिए थोड़ा सा वक्त बाकायदा योजनाबद्ध ढंग से निकाल लेते हैं- लड़कियां ऐसा नहीं कर पातीं। इस तरह का वक्त भी वह पढ़ाई में लगाती हैं। लड़कियां स्वयं को धोखेबाज बताने से नाराज हैं उनका कहना है कि अब लड़कों को लड़कियों के साथ-साथ चलने की आदत डाल लेनी चाहिए।


१२.व्यंग्य
बीड़ी पीने के फायदे
संतराम पाण्डेय
बीड़ी पर भले ही अब स्वास्थ्य संबंधी चेतावनी लिखकर आने लगी है लेकिन इससे बीड़ी के शौकीनों की आबादी कम नहीं हुई। जो नहीं पीता, वह भले ही पीने वाले से बोले- थोड़ा परे, लेकिन जो पीता है, वही इसके फायदे हमसे ज्यादा समझ सकता है।
एक दिन मैं एक ऐसे सेमिनार में जाना हुआ जिसमें बीड़ी पीने के फायदे पर चर्चा हो रही थी। दूर-दूर से नामी-गिरामी वक्ता बुलाये गये थे। उनको बोलने के लिए यही विषय दिया गया था। एक वक्ता के रूप में मुझे भी बुलाया गया था। मैं आश्चर्यचकित था कि जब मैं बीड़ी-सिगरेट पीता नहीं, तो उसके फायदे के बारे में कैसे जानकारी रख सकता हूं। जाहिर है, बीड़ी-सिगरेट के फायदे का पता होता तो मैं भी बीड़ी-सिगरेट जलाकर सुट्टे मार रहा होता। नुकसान के बारे में प्राय: बड़ों से सुनने को मिल जाता है। बीड़ी मत पिओ, खांसी आयेगी। बीमारी पैदा हो जायेगी। तम्बाकू नुकसान करेगी। इसलिए नुकसान का पता है, किन्तु बीड़ी पीने के फायदे के बारे में मुझे तभी पता चला, जब इस सेमिनार में मुझे आमंत्रित किया गया।
एक वक्ता को मंच पर बुलाया गया। दुबली काया। झुकी कमर। रह-रहकर आती खांसी को इंगित कर मंच संचालक ने उनका परिचय कराया। संचालक ने कहा ये जनाब पिछले ७० सालों से बीड़ी पीते आ रहे हैं। जब से होश संभाला, तभी से बीड़ी पीने लगे थे। सात दशक का अनुभव कम नहीं होता। इतना अनुभव किसी नेता को राजनीति का हो जाये तो देश में बार-बार सरकारें बदलने का संकट ही खत्म हो जाये।
खांसते-खांसते वक्ता महोदय किसी तरह मंचपर चढ़े।  माइक के नजदीक वह ज्यों-ज्यों पहुंच रहे थे, खांसी की वैल्यूम बढ़ती जा रही थी। इस सेमिनार को सुनने आये श्रोताओं में बड़ा उत्साह था। वक्ता ने माइक संभाला बोले, 'मेरे प्यारे श्रोताओं- मैं पिछले लगभग ७० साल से बीड़ी पी रहा हूं। इसकी सबसे खास उपलब्धि यह है कि पिछले ४० वर्षों में मेरे घर और मेरे पड़ौसी के यहां एक भी चोरी नहीं हुई।Ó श्रोता चौके, बीड़ी का चोरी से क्या सम्बन्ध? एक शरारती श्रोता ने खड़े होकर पूछ लिया। मान्यवर, बीड़ी आप पीते रहे इससे चोर क्यों व कैसे प्रभावित हुए, मेरा ज्ञानवद्र्धन करें। वक्ता ने तुरन्त जोरदार खांस लगायी और बोले-सम्बन्ध है। बड़ा सीधा सम्बन्ध है। बीड़ी पीने की २०-३० साल की अवधि पार करते न करते मुझे गले में शिकायत होने लगी थी। मैं रात भर खांसता रहता था। घर में मैं तो जागता ही था। मेरे घर वाले तथा पड़ौसी भी गहरी नींद में नहीं सो पाते थे। ऐसे में चोर आने की हिम्मत नहीं कर सकता, जब घर में कोई जाग रहा है।
दूसरे वक्ता का नम्बर आ चुका था। मंच संचालक ने आवाज दी। वह मंच पर आये और माइक संभाला। बोले-मुझे कोई बीड़ी वाली कम्पनी धोखा नहीं दे सकती। एक कश लगाते ही जान लेता हूं कि बीड़ी नकली है या असली। मेरे मौहल्ले के तमाम लोग अपनी बीड़ी हमें दिखाने आते हैं कि ताऊ देखकर बताना कि यह असली या नकली। बीड़ी का सबसे बड़ा फायदा यह है कि मैं बता सकता हूं। इसलिए लोग मेरी इम्प्वारटेंस मानने लगे हैं। वीआईपी का सा दर्जा मिल गया है मौहल्ले में।
तीसरे वक्ता का जब नम्बर आया और उसने जोरदार तरीके से अपना सोंटा मंच पर टिकाया औँर मंच पर जा पहुंचा। गला साफ करते हुए उसने कहा- मैं पेशे से ड्राइवर हूं। बीड़ी पीता हूं तो नींद नहीं आती और गाड़ी सरपट भागी चली जाती है। बोलने के लिए मेरा नंबर आया और मंच संचालक मेरा नाम पुकारते हुए इतने जोर से दहाड़ा कि मेरी नींद खुल गई। अब नींद खुलने पर सबसे पहले मैंने अपने अड़ोस-पड़ोस में यही बताया कि बीड़ी पीने के फायदे नहीं, नुकसान ही हैं।



१३. व्यंग्य
लेने-देने की पद्धति- थैली
संतराम पाण्डेय
मेरा तो ब्रीफकेस पद्धति में कभी विश्वास ही नहीं रहा। इसलिए ब्रीफकेस के माध्यम से न लेने में मेरी आस्था है न ही देने में। अब कोई यह कहे कि आपका स्तर ब्रीफकेस का है ही नहीं, तो सच, मैं चांटा मार दूं। जब ब्रीफकेस से ज्यादा माल मैं थैलियों में ले सकता हूं तो स्तर कहां कम हो गया। आज थैलियों का युग है। थैलियों में पर्दा है। रहस्य है, रोमांच है और ब्रीफकेस में नंगापन। हर 'भलेÓ आदमी को लेन-देन थैलियों में करनी चाहिए, ब्रीफकेस में नहीं। ब्रीफ केस वाले भले ही समाज में टेढ़ी नजर से देखे जाते हों लेकिन थैलियों वाले पर कोई उंगली नहीं उठा सकता।
धन चाहे रिश्वत हो या दान का, थैलियों में शोभा देता है। विदेशी होने की दुर्गंध आती है। थैली स्वदेसी मानी जाती है। मेरे दादा जी थैली में ही पैसे रखते थे। दादी का बटुआ भी थैली की मानिंद था। यह पुरातन काल से चली आ रही व्यवस्था की परिचायक है। ब्रीफकेस पद्धति अप्रजातंत्रिक है। अप्रजातांत्रिक होने के नाते हर एक की आंखों में चुभती है। ब्रीफकेस देखते ही विपक्षी के कान खामखां खड़े हो जाते हैं। थैली को सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक तथा नैतिक मान्यता मिली हुई है। इन्हीं मान्यताओं के चलते आज तक कोई भी थैलियों पर उंगली नहीं उठा सका है। नेता चुनावों में थैलियां लेकर जाते रहे हैं, किसी ने उंगली तक नहीं उठाई। विपक्षी तक नहीं बोले। थैलियां करोड़ों रुपये पेट में रखकर भाग्य बदल देती हैं। कुछ पार्टी कोष में जाती हैं, कुछ व्यक्तिगत कोष में, जनता कुछ नहीं कहती है। विरोधी शांत रहते हैं। लेकिन कोई ऐसे मौकों पर कोई खाली ब्रीफकेस भी थाम ले, राम कसम, बवाल हो जाएगा। राजनीति में भूकंप आ जाएगा।
चुनावों में थैलियां ली जाती हैं। कोई है बोलने वाला? कोई नहीं बोलेगा। थैली में प्रजातंत्र है। यह प्रजातांत्रिक पद्धति है। थैलियां लेकर प्रत्याशी चाहे कुछ भी करें। कोई पूछने वाला नहीं है। ब्रीफकेस लेकर नेता अस्पताल भी बनवा दे तब भी लोग कहेंगे खा गया, भ्रष्टाचारी कहीं का, बड़ा ईमानदार बनता है।
प्राय: राजनीतिज्ञों को लोग सम्मान के रूप में पगड़ी बांधा करते हैं। हजार बार पगड़ी बंधवाने वाला नेता एक बार ब्रीफकेस ले ले तो मानो उसकी राजनीतिक हत्या हो जाया करती है। कभी-कभी विपक्षी दल के नेता विपक्षी को ब्रीफकेस भेंट करने की योजना तक बना डालते हैं किन्तु समझदार नेता तुरंत कह देता है- थैली में लाओ। चुनावों का थैलियों से पुराना रिश्ता है। इस रिश्ते को राजनीति ने मतबूती प्रदान की।
शादी विवाह जैसे अवसर पर थैली की पुरानी परम्परा रही है। पहले नोट कागज के नहीं चलते थे। सिक्के थैलियों में बंद होकर ही काबू में आते थे। धीरे धीरे सिक्के की शक्ल वाली लक्ष्मी का थैली से मोह हो गया। अब लक्ष्मी को कोई ब्रीफकेस में बंद करना चाहे तो उसे कैसे बर्दाश्त होगा। ब्रीफकेस में बंद लक्ष्मी बागी नहीं होगी तो क्या होगी। इसलिए मेरी सलाह है कि यदि लेना देना जरूरी है तो थैलियों में ही लें। इससे न लेने वाले का स्तर कम होगा न देने वाला का।
भ्रष्टाचार का कुछ अलग मुखौटा है। ब्रीफकेस भ्रष्टाचार का मुखौटा है। थैली में पवित्रता है। रहस्य है। एक शालीनता है। कुछ भी लो कुछ भी दो थैली में हो।



१४. व्यंग्य
नेता आसमान से टपका!
-संतराम पाण्डेय-
कितना चतुर होगा वह व्यक्ति जिसने यह तय किया होगा कि जनता पर शासन करने वाले, उसका भाग्य निर्धारण करने वाले राजनता होंगे। राजनेता कहीं से पैदा नहीं होगा-आसमान से नहीं टपकेगा- वही जनता बनद्मयेगी, जिस पर राज करेगा।
राजसत्ता वहां तक तो ठीक थी कि उसका काम केवल राज काज चलाना है। इसमें संदिग्धता तब आयी, जब यह होने लगा कि सत्ता चलाने वाला राजनेता नहीं प्रशासनिक अमला है और राजनेता का मुख्य काम अपनी सत्ता बनाये रखना है।
वस्तुत: राजसत्ता के लिये दो चीजों की जरूरत होती है- जनता और नेता। देश के सारे नागरिक ही जनता हैड्ड। जनता जब चाहती है कि उसे अच्छी जिंदगी जीने के लिये कुछ सुविधाएं चाहिये तो उसी के बीच से एकाध स्वर फूटते हैं कि आओ आगे बढ़ो हम तुम्हारे साथ हैं। जनता आगे बढ़ती है। स्वर भी आगे बढ़ता है। जनता की आवाज शनै: शनै: धीमी पड़ती जाती है और बीच से फूटा एकाध स्वर बुलंद होने लगता है। उसकी तरफ आकर्षण बढ़ता है। जनता की उत्साही आवाज थम जाती है। फूटा स्वर तेज हो जाता है।
अब स्थिति यह आती है कि नेता आगे हो जाता है। जनता पीछे हो जाती है। जनता पीछे होती चली जाती है। यही स्थिति आज है। जनता पीछे हो गई है। गौण हो गयी है। उसकी आवाज गौण हो गयी है। अब उसकी आवाज इतनी धीमी हो गयी है कि उसके नेता को ही उसकी आवाज नहीं सुनाई देती है। ऐसे ही जनता के बीच से नेता का अस्तित्व सामने आया।
वस्तुत: जनता का अस्तित्व शाश्वत है। नेता का अस्तित्व अस्थाई। जनता एक गाड़ी है जो जनता को ही ढोती है। आज भी ढो रही है। आगे भी ढोती रहेगी। जनता पर कितना भी भार लाद दिया जाये, उसे भारी नहीं लगता। नेता को जिन्दा रहने के लिए जनता का जिन्दा रहना आवश्यक है। नेता जानता है कि जनता हमेशा जिन्दा रहेगी। इसी आस में नेता भी जिन्दा रहेगा। नेता की जिन्दादिली भी जीवित रहेगी। जनता के बीच से अस्तित्व में आया नेता जनता पर निर्भर है।
नेता का अस्तित्व एक टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी जैसा है, जिसे जनता के अस्तित्व ने फर्राटेदार हाईवे बना दिया है। वह उसी पर बेरोकटोक दौड़ रहा है। नेता का अस्तित्व जनता की धारणा, उसकी इच्छा पर कायम है। जनता हर पांच एसाल के चुनाव में अपने अस्तित्व को बोध कराती है लेकिन अब नेता कुर्सी के लिए बन गया है।



१५. व्यंग्य
रेखाओंं की असली असलियत
लकीरों की भी अजीब दास्तान है। कहीं रेखायें मिट रही हैं और कहीं गहरी की जा रही हैं। कहीं-कहीं लोग लकीर के ही फकीर बने रहना चाहते हैं। अभियानों का जोर है कहीं मिटाने के लिए तो कहीं गहराने के लिए।
जर्मनी को ही ले लीजिए। एक अरसे से पूर्वी पश्चिमी के बीच खिंची रेखा को मिटाने का महत्वपूर्ण अभियान चला। लकीर मिटाना और खिंचना, दोनों एक आनुष्ठानिक प्रक्रिया है।
इराक की रेत में अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने रेखाएं खींचने का अभियान चलाया। कोई रेत में रेखा (अभिनेत्री नहीं) खींचकर तेल निकाल सके या नहीं किन्तु राजनीतिज्ञ इसमें माहिर है। इराक, कुवैत अथवा अन्य रेतीय राष्ट्रों से तैलीय उपलब्धि हासिल करना नेताओं के लिए कठिन नहीं है।
राजनीतिज्ञों के लिए खाड़ी के मूल्यों से तेल निकालना शत प्रतिशत यथार्थ है- सत्य है।
धन्य है आंड्रयूज हबसले जिन्होंने अपने उपन्यास 'डार्स ऑफ हक्सलेÓ में रेत के दार्शनिक स्वरूप को पहचाना था। उन्हें क्या मालूम था कि राजनीतिज्ञ तक उनकी खोज और दर्शन पर रेत के इतने बड़े महल खड़े करने में कामयाब हो जायेंगे।
रेखाएं यत्र-तत्र सर्वत्र हैं। मस्तिष्क पर हैं- हाथ पर हैं। मूल्यांकन अलग-अलग होता है। सम्पादक राजनीतिक, पटल पर दृश्य को रेखांकित करता है तो ज्योतिषि ललाट और हाथों की रेखाओं को, इसके अतिरिक्त एक रेखा और भी है-गरीबी की रेखा जो भारत जैसे देश में नित्य गहरी होती जा रही है, रेखा मिटाने के प्रयास में।
रेखा का उपयोग अभी हाल ही में एक जगह और किया गया - अमीरी की रेखा। गरीबी की रेखा मिटाते- मिटाते एक रेखा का ओर उदय हो गया। कितनी मजेदार बात है। देश विदेश, गांव-शहर में माप तौल अब रेखाओं से होनी शुरू हो गयी है।
हमारे राष्ट्र की रेखाएं भी सीमाओं से ही घिरी हैं। रेखा मर्यादा है- धर्म है और बन्धन है। विवेक है- कला है और साहित्य भी है। गणित तो है ही। सूजन भी है। रेखाओं से ही रूपरेखा बनती है- उपरेखा बनती है। हर जीवन में रेखाएं हैं। जीवन मृत्यु में रेखा है- गरीब अमीर में रेखा है। जाति-पाति में रेखा है। ऐसा लगता है कि मानव जीवन ही एक रेखा गणित है।
अपना शहर ही ले लो। दंगों की पहचान कराने के लिए एक रेखा इसके माथे पर खिंच चुकी है। क्रांति का संदेश देने वाली रेखा मद्धिम पड़ गयी है और दंगों की रेखा गहरी होती जा रही है। इससे जब तब मेरठ के मस्तिष्क पर रेखाओं पर बल पड़ जाते हैं। अब तो क्रान्ति की ऐसी रेखा खिंचने की प्रतीक्षा है जो इस रेखा को मिटा सके। रेखा कौन खींचेगा- यह अहम सवाल है।
कहीं रेखाएं गम देती हैं। कहीं खुशी देती हैं। कहीं आर्थिक लाभ कराती हैं तो कहीं भाग्योदय। है न रेखाओं की विचित्रता। रेखाओं से मन प्रफुल्लित भी होता है और गमगीन भी। रेखाओं का इतिहास अपरिमित तथा असीम है। हम रेखाओं के जाल में घिरे हैं-कभी रेखाएं खींचते हैं- कभी मिटाते हैं। कभी उनका अतिक्रमण करते हैं तो कभी उनके सृजन का श्रेय बनाते हैं। वस्तुत: रेखाओं के अभाव में न हमारा ही अस्तित्व है और न संसार का।


१६ व्यंग्य
कल्लो की मेरठ यात्रा
-संतराम पाण्डेय-
कल्लो ने कभी सरकार को न देखा था। सो उसे जब पता चला कि सरकार मेरठ आ रहे हैं तो वह फूल के कुप्पा हो गई। सोचा एक साथ दो काज हो जाएंगे। सरकार को देख लेगी और इसी बहाने शहर घूमना हो जाएगा। किसी होटल-रेस्तरां से खाना-पीना कर लेंगे। हवा-पानी बदल जाएगा। मन भी बहल जाएगा। यहां गांव में रहते-रहते जी भर गया। साल में एकाध बार 'आउटिंगÓ तो होनी चाहिए। कल्लो यह सोच-सोचकर ही खुश हुई जा रही थी।
अगली सुबह हुई तो कल्लो ने गैय्या को चारा दिया। वहीं बगल में दो छोटे-छोटे ड्रम में पानी भर दिया और दो तीन जगह अतिरिक्त चारा जमा कर दिया कि न जाने आज लौटना हो कि नहीं, गैय्या भूखी तो न रहेगी। उसकी रस्सी लम्बी बांध दी कि वह घूम-घूमकर चारा खा सके और पानी पी सके। घर के काज से फुरसत पाकर कल्लो सड़क पर आ बस का इंतजार करने लगी। आते ही वह बस में सवार हो चल पड़ी मेरठ को। बस में बैठे-बैठे उसे दिन में सपने आ रहे थे। सोच रही थी- सरकार से कहेगी कि गांव में पक्की सड़क बनवा दे। पानी की दिक्कत है सरकारी नल भी लगवा दे। रात में चोर-उचक्के घूमते हैं, बिजली के खंभे गड़वाकर उस पर बत्ती लगवा दे। रात-बिरात बरसात में दिक्कत होती है। थोड़ा आराम हो जाएगा। प्रधान जी की शिकायत भी करेगी कि वह सुनते ही नहीं हैं। सरकार से कहेगी कि जो सरकारी राशन की दुकान खुलवा रखी है, वह खुलती ही नहीं तो राशन क्या मिले। हम गरीबों की गांव में बड़ी मुसीबत है, कुछ करो सरकार जी। बस में बैठे-बैठे उसके मन में तेजी से चल रहे सपने किसी चलचित्र से कम नहीं थे। तभी बस एक धक्के से रुकी तो देखा मेरठ आ गया। कंडक्टर ने आवाज दी, मेरठ वालों उतर जाओ।
बस से उतरते ही कल्लो को बैटरी वाला रिक्शा दिखाई दिया। वह एक रिक्शा में बैठ गई। थोड़ी दूर चलने पर एक सवारी रिक्शे से उतरने लगी, तभी दो लड़के आए और कल्लो के ही हाथ से उसका पर्स झपट लिया और भाग लिए। वह चिल्लाती रह गई। सरकार को देखने का सपना पाले कल्लो आगे बढ़ी तो पुलिस वाले रास्ता रोके खड़े थे। कल्लो ने कहा हमें सरकार से मिलना है। पुलिस वालों ने डंडा फटकार कर भगा दिया। बोले- सरकार बिजी हैं- अभी नहीं मिल सकते। अब क्या करे- कल्लो मायूस हो चली। शाम होने को आ गई। कुछ दूर एक रेस्तरां देख रिक्शे वाले भैया से वहीं चलने को कहा। अब भूख लग रही थी। वहां कुछ खाया पिया। पैसे दिए। यह तो अच्छा हुआ कि बड़े नोट अंटी में बांध लिए थे। अम्मा कहा करती थी कि पैसे एक जगह मत रखो। नहीं तो आज पर्स लुट ही गया-क्या करती वह?
कल्लो ने सोचा सरकार को तो देखा नहीं, चलो किसी पार्क में ही घूम लेते हैं। सामने ही बड़ा सा पार्क था, वहीं जाकर एक बेंच पर बैठ गई। अभी वह बैठी ही थी कि दो-तीन मनचले आ धमके। फिकरे कसने लगे। उसने जब डांट लगाई तो वह भद्दी सी गालियां बकते भाग खड़े हुए। अब बस का वक्त होने को था। तभी तेज बारिश होने लगी पार्क तक में घुटनों-घुटनों पानी भर गया। सड़क भर गई। सवारियां जहां तहां रूक गईं। लोग पैदल ही आ-जा रहे थे। वह भी पैदल-पैदल बस अड्डे पहुंची। बस तैयार थी वह बस में सवार हो गई। घर पहुंची ही थी कि गैय्या उसे देख रम्भाने लगी- कल्लो ने गैय्या को पुचकारा और चारा दिया।
अब उसके सपने दूसरी तरह के चल रहे थे। हम गांव वाले ही अच्छे हैं। राह चलते छिनैती तो नहीं होती। मनचले तो नहीं घूमते। घनी बरसात में पानी तो नहीं भरता। कल्लो मन ही मन सोच रही थी कि शहर में रहने वालों की बड़ी मुसीबत है। उसे क्या पता कि नाले की सफाई करोडों में हो चुकी है। शहर की मुसीबत देख वह अपनी राशन की दुकान, सरकारी नल, पक्की सड़क, सब भूल चुकी थी।
-लेखक व्यंग्यकार हैं।
मांबाइल-७८९५५०६२८६



१७. व्यंग्य
तुम्हारे तवे पर मेरी रोटी
-संतराम पाण्डेय-
जो मजा दूसरे की तवे की रोटी में आता है, वह अपने तवे की रोटी में कहां। आज जमाना ही बदल गया है। जिसे देखों दूसरे की तवे पर अपनी रोटी सेंकने में लगा है। न हलदी न फिटकरी और रंग चोखा।
एक गाना सुना था- पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, इसके बाद ही मेरे सामान्य ज्ञान में तनिक वृद्धि हुई कि पानी का भी रंग हुआ करता है। इसके बाद मैंने मान लिया कि मिलावट करने वालों पर मंडराता खतरा टल गया है। कम से कम पानी में तो वह जो चाहे मिला ही सकते हैं। अब वह तर्क दे सकेंगे कि पानी भी तरह-तरह के रंग के पाये जाते हैं, उसमें मिलावट की क्या जरूरत अथवा मिलावट हुई ही नहीं। पहले ही रंग ऐसा था। मिलावटियों को तर्क मिल गया। उन्होंने राहत महसूस की। पर अब गर्मियां आ गयी हैं। पानी किसी भी रंग का हो, यदि वह उपयोग के काबिल है तो उसकी खपत बढ़ेगी। जरूरत भी महसूस की जायेगी। इसी दृष्टि से आज हर रंग के पानी की जरूरत बढ़ गयी है। खपत भी बढ़ गयी है। गर्मियों में पानी की खपत तो बढ़ जाया कती है। जो गाहे-बगाहे यदा कदा त्यौहारों, शादियों या जन्म दिनों पर नहाया करते थे, अब वे भी रोज ही क्या, दिन में तीन-तीन बार नहाने लगे हैं। खपत तो बढ़ेगी ही। अब इसका कारोबार करने वाले जनता जनार्दन के तवे पर रोटी सेंकने में लगे हैं।
   पिछले दो हफ्तों से रोज शिकायत मिल रही है कि कई मौहल्लों में पानी नहीं आ रहा है। जहां आ रहा है, वहां ऊपरी मंजिल वाले श्बिन पानी सब सून्य की स्थिति में जीवन यापन कर रहे हैं। नगर के एक सम्मानित नागरिक ने हमें सूचना दी कि वह पिछले छह दिन से स्नान नहीं कर सके हैं। और तो और टायलेट तक की जिल्लत भुगतनी पड़ रही है। हमारे महानगर में भी पानी की किल्लत है। नगर निगम और गैर संवेदनशील प्राणी इन्कार नहीं कर सकता। शासन कुछ कर सके या न कर सके, किन्तु सरकारें सचेत हैं। प्रमाण है कि गांवों से लेकर शहरों तक हैण्ड पम्पों (बड़े-बड़े) से लेकर पाइपों की लाइन लगी पड़ी है। पानी मिले न मिले।
   पानी को लेकर कहीं-कहीं बड़े जागरूक नागरिक पाये जाते हैं। लोग अपने घरों में टुल्लू पंप लगा लेते हैं। पड़ोसी को पानी मिले या न मिले। वे इसकी कतई परवाह नहीं करते कि पड़ोसी से मधुर व्यवहार रखना चाहिए।  अभी कुछ दिनों पहले हमारे यहां गंगाजल की एक स्कीम में पाइपें छाली गईं। जद्दोजहद के पानी यानि कि गंगाजल आने लगा लेकिन फिर वही हालत। ये सिस्टम ही इतना गड़बड़ाया है कि जितना ठीक करो, उतना ही बिगडता जाता है लेकिन अब जनता भी दूसरे के तवे पर अपनी रोटी में पारंगत हो गई है।
बहुत साल पहले नागरिकों की जागरूकता की एक मिसाल गोआ में मिली थी। वहां भी पानी की कमी थी। उनकी जागरूकता देखिए कि उन्होंने विरोध का बड़ा बढिया तरीका निकाला। गोआ की राजधानी पणजी के नागरिकों ने प्रदर्शन किया था। एक भीड़ के रूप में वे लोटा, बाल्टी, तौलिया लेकर मुख्यमंत्री के निवास पर जा पहुंचे थे। मुख्यमंत्री जी घर पर नहीं थे, सो उनके स्नानागार में नहाने का सुख न प्राप्त कर सके। मुख्य सचिव के घर भीड़ जा पहुंची। वह भी नहीं मिले। भीड़ स्थानीय विधायक के घर जा पहुंची। पता नहीं वह मिले कि नहीं, किन्तु अगले दिन विधान सभा में मामला उठा और पानी का प्रबंध करने का आदेश हो गया। हमारे महानगर में अभी जागरूकता की थोड़ी कमी है। नहीं तो जिस दिन पानी न मिला, जनता जनार्दन या तो मेयर के घर स्नान करते मिलेगी या नगर आयुक्त के। राशन की दुकानों पर बड़ी मारामारी है। नाहक लोग तंग हो रहे हैं। भूख लगे तो ऐसे ही किसी अधिकारी या नेता के तवे पर उसी के आटे की रोटी सेंक आएं। है न अच्छी बात। गोवा का पुराना उदाहरण इसलिए दिया कि जब वहां के लोग इतने जागरूक हैं तो हम क्यों नहीं हो सकते? हमें भी दूसरे के तवे पर अपनी रोटी सेंकने का गुर आना चाहिए।




१८. व्यंग्य रचना
ये दिल्ली भागी-भागी सी!!
-संतराम पाण्डेय-
बात दशकों पहले की है। 1984 के आसपास जब दिल्ली आया था तो दिल्ली में रहने वालों का कहना था कि दिल्ली दिल वालों की है। ऐसा कहकर बड़े गर्व का अनुभव होता था। बाहर से आने वाले भी सोचते थे, अच्छा तो यहां रहते हैं दिल वाले। इसके सालों बाद फिर फिल्म देखी दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे लेकिन उसमें कहीं कोई दिल्ली वाला न दिखा। दिलवाला तो दिल्ली का था लेकिन वह तब तक मुंबइया हो चुका था। यह वह दिल्ली है जो अक्सर बदलती रहती है- चंदा मामा की तरह। कभी किसी ओर बढ़ गई, कभी किसी ओर। अब दिल्ली दूसरे राज्यों के घर में घुसने लगी है भाग-भाग कर। अब दिल्ली भागती है। भागमभाग मची है दिल्ली में। क्या नेता क्या अभिनेता। क्या कारोबारी, क्या मदारी, क्या पढने वाला और क्या पढ़ाने वाला। सब भाग रहे हैं। कोई स्थिर नहीं है। अब भागमभाग दिल्ली की किस्मत में टंक चुका है। 
जाइए लाल किले पर। वही जिसको गोद दे दिया गया है। अब वह भी दिल्ली का नहीं रहा। गोद ले लिया किसी ने उसको। कुतुबमीनार उससे रश्क करती होगी कि देखो हम अब भी दिल्ली की हैं। दिल्ली अब देश की राजधानी ही नहीं, देखने वालों की भी दिल्ली बन गई है। कितने ही आते हैं और रोज मुंहदिखाई करके चले जाते हैं। राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, केन्द्रीय सचिवालय, पुराना किला, सफदरजंग का मकबरा, जंतर मंतर, कुतुब मीनार और लौह स्तंभ जैसे अनेक विश्व प्रसिद्ध निर्माण और स्थापत्य कला को समेटे दिल्ली। हुमायूँ का मकबरा, जैसी विश्व धरोहर मुगल शैली तथा निजामुद्दीन औलिया की पारलौकिक दरगाह वाली दिल्ली। बिरला मंदिर, आद्या कात्यायिनी शक्तिपीठ, बंगला साहब गुरुद्वारा, बहाई मंदिर और जामा मस्जिद, देश के शहीदों का स्मारक इंडिया गेट, राजपथ वाली दिल्ली। कनॉट प्लेस, चाँदनी चैक, मुगल उद्यान, चिडियाघर वाली दिल्ली देखने का आनंद ही क्या है। 
लाल किले से चांदनी चैक की तरफ देखिए या उस बड़ी वाली मस्जिद की ओर। मीना बाजार हो या स्टेशन की तरफ जाने वाली सड़क......। सब पर भागमभाग है। यह सिलसिला अब केवल जमीन पर नहीं रहा। दिलवालों का शहर अब पुल वालों का शहर हो चुका है और भागमभाग जमीन से लेकर छत तक मची है। पुराने किले के पास भैरव बाबा के पास कुछ स्थिरता मिली। दो-दो बूंद के लिए बहुत सारे लोग टिके हुए थे। कुछ दूर चलने पर मटके वाले के पीर के पास भी गजब की शांति दिखी। मटके में शांति की खोज भी दिल वाली दिल्ली का एक दर्शन है।
अरावली और रायसीना की पहाडियों वाली दिल्ली। रामलीला मैदान में रामलीला के साथ ही देश भर की लीलाएं देखने वाली दिल्ली। रोजी-रोटी की जुगाड़ में सड़कों पर भागती भीड़ में शामिल बेरोजगारों वाली दिल्ली। कभी इसकी, कभी उसकी, बड़ी बेवफा दिल्ली। कभी एक के पास न टिकने वाली दिल्ली। दिल से बेपरवाह फिर भी दिल वालों की दिल्ली। यहां दिल वालों की सुनता कौन है, फिर भी दिल्ली। अतीत की तमाम यादों को संजोए दिल्ली, अब भागमभाग वाली दिल्ली में बदल गई है। न जाने कितने लोग रोज दिल्ली को पाले की तरह छूते हैें और फिर वापस आ जाते हैं। दिल वालों की दिल्ली कब सियासत के कारोबारियों की दिल्ली बन गई, दिल वालों को ही नहीं पता चला। यह वही दिल्ली जिसमें दो-दो दिल्लियां बसती हैं- नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली।

Sep 20, 2018

मैं कविताएं कम ही लिखता हूं लेकिन आज न जाने क्यों, रच उठी एक छोटी सी यह कविता। आप भी पढ़ें मित्रों......नमस्ते दीदी!!
01. नमस्ते दीदी!!
-सन्तराम पाण्डेय-
स्कूल जाते हुए वह
रोज हमें कहता था
नमस्ते दीदी,
मैं चुप होकर

बस उसे देखती
रहती थी।।

पढऩे में होशियार था
हर बार अव्वल आता था
वह बड़ा था उम्र में
हमसे कई साल
फिर भी कहता था
नमस्ते दीदी!!
मैं बड़ी हो गई
स्कूल छूटा कालेज आ गई
सखी और दोस्त बने
पर कोई न मिला
जो कहे
नमस्ते दीदी!!
फिर एक दिन
खड़ी थी स्टापेज पर
ढलती शाम, लग रहा था डर
उसके दो शब्द अब भी
गूंज रहे थे मस्तिष्क में
नमस्ते दीदी!!
वहां कोई न था, बस
कुछ मनचले थे वहां
जो कर रहे थे छींटाकशी
तभी वह अचानक आया
और बोला
नमस्ते दीदी!!
वह था बाइक पर
लगाए था हेलमेट
मैं पहचान न सकी
लेकिन न जाने क्यों
अहसास जगा, कानों में गूंजा
नमस्ते दीदी!!
तभी उसने कहा साधिकार
बैठो मैं छोड़ देता हूं
न जाने क्यों मैं
चल दी उसके साथ
फिर वह हंसकर बोला
नमस्ते दीदी!!
अहसास जगाते हैं शब्द
रिश्ते बनाते हैं शब्द
शब्दों से मत खेलो
करो सम्मान इनका
यही तो है
हमारी संस्कृति!!



२०.०९.२०१८
आज फिर एक रचना।


पहले चिट्ठियां आती थीं।
अब नहीं आतीं। 
कितनी आत्मीयता होती थी 
चिट्ठियों में, आप भी देखिए मित्रों.... एक प्रयास।।
02. शीर्षक- चिट्ठियां
-सन्तराम पाण्डेय-


चिट्ठियां आती थीं,
हंसती और रुलाती थीं।।
होता था इंतजार
जब याद
अपनों की आती थी,
चिट्ठियां आती थीं,
हंसती और रुलाती थीं।।

अब पूछते हैं लोग
क्या होती थीं चिट्ठियां
क्या बताएं
खुशी और गम की
ताबीज होती थीं चिट्ठियां
चिट्ठियां आती थीं,
हंसती और रुलाती थीं।।

चिट्ठी पर होता पता किसी घर का
नहीं होता था तो
उस पर नंबर मकान का
फिर तो आई बयार ऐसी
कि गुम गईं चिट्ठियां
चिट्ठियां आती थीं,
हंसती और रुलाती थीं।।

वक्त ने करवट खाई
पश्चिम से बयार आई
हाथों में औजार आए
उड़ा ले गईं
हमारी चिट्ठियां,
चिट्ठियां आती थीं,
हंसती और रुलाती थीं।।

चौबारों में फुरसत के पल
याद दिलाते थे
चिट्ठियां
बातें होती थीं
पिछली चिट्ठी की,
चिट्ठियां आती थीं,
हंसती और रुलाती थीं।।