Jan 9, 2011

अरे ! आप तो जैसे थे वैसे ही है पुष्पेन्द्र जी

आप से पिछले दिनों काफी अरसे बाद मिलना हुआ । एक बार
जब राधा गोविन्द कालेज के मैदान में मैच हो रहा था तब और
बाद में जब अतुल जी की शोक सभा में प्रेस क्लब आना हुआ ।
बात करने का वही अंदाज । चाल में वही पुरानी
मस्ती । नाहक ही लोग कहते है की पुष्पेन्द्र जी बदल गए है । बोल में वही मिठास ।
जो किसी को भी अपना बना लेती है । हाँ ! तरक्की से जुडी कुछ मजबूरिया होती है
जिसका लोग अलग मतलब निकल लेते है । मिलना जुलना कम हो जाता है लेकिन यह तो
होता ही है । वह चाहे कोई भी हो । हम जब निर्मल जी से मिलते है तो जरूर चर्चा होती है ।
अब यही देखिये हम भी तो निर्मल जी से ज्यादा नहीं मिल पाते तो इसका मतलब तो यह नहीं की हम दूर हो
गए । हम लोगों में आज भी वही दो दसक पुरानी गर्मजोशी बनी है ।ईश्वर से
यही गुजारिश है कि हम लोगों में यही मोहब्बत बनी रहे और हम लोगों का साथ भी
बना रहे । क्यों हम ठीक कह रहे हैं न ।

हम और आप ही कम करेंगे सड़क की भीड़

Jan 4, 2011

न खोएं रिश्तों का आधार

आज जो कुछ कहने का मन हो रहा है उसे डा कुअंर बेचैन की दो पंक्तियों ने और कुरेद दिया । वह कहते हैं -
कौन किसका साथ देता है
कौन गिरते को हाथ देता है
तुम गर चाहो तो देख लो गिरकर
दोस्त पीछे से लात देता है ।
आज गिरते रिश्तों को देख कर यकीन नहीं होता कि यह वही देश है जो वसुधैव
कुटुम्बकम को आत्मसात किये है । समाज से अपनापन रोज बेदखल होता जा
रहा है । हम दिलो दिमाग से इसे ख़ारिज करने पर तुले हैं । एक कवी ने ठीक
ही कहा है -
रिश्तों की कैसी उलझन है
शर्तों पर होते बंधन हैं
अब बंध जाने का मोह नहीं
बस खुल जाने की तड़पन है ।
बस एक बात कहनी है कि जब रिश्ते बोझ बन जाएँ तो उसे ऐसे उठायें कि जिंदगी
हलकी हो जाये । उसे बोझ न बने रहने दें ।