Nov 25, 2011

भाइयो
के साथ
बहना
हमारा पूरा कुनबा
हमारे साथ

Nov 13, 2011

आर्थिक आजादी के सपने का भटकाव

संतराम पाण्डेय-
आज देश तरक्की कर रहा है। विश्व में भारत की खास पहचान है। जिस रफ्तार से देश तरक्की कर रहा है, उसी रफ्तार से कुछ ऐसी चीजें छूटती जा रही हैं, जो देशवासियों के हित से गहराई से जुड़ी हैं। इसी तरक्की की रफ्तार के बीच जब यह खबर आई कि देश के लोग शहर में ३२ रुपए और गांव में २६ रुपए में गुजारा कर सकते हैं तो देश का आम आदमी सन्न रह गया। वह सोचने लगा कि क्या हमारे देश को आजाद कराने वालों ने आजाद भारत का जो सपना देखा था, वह यही था जिसमें यह परिकल्पना की जा रही है। एक बात तो सत्य है कि आजादी के बाद देश के शहरों का विकास हुआ है और गांव शहर के निकट आए हैं। एक तरह से देखा जाए तो गांवों का भी शहरीकरण हुआ है लेकिन लोगों की आर्थिक आजादी का जो सपना आजादी की लड़ाई की पीढ़ी के नेताओं ने देखा था, उससे आज हम भटक गए हैं। आर्थिक आजादी के मुद्दे पर कमजोरी आई है। आज ३२ और २६ रुपए में गुजारा कर लेने की जो कल्पना की जा रही है, यह इस बात का प्रमाण है। धन की जो असमान पहुंच हुई है, उसने देशवासियों को इस हालत में पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दरअसल देश को आजाद कराने वालों का सपना क्या था, उस पर हम नजर डालें तो बात काफी कुछ साफ हो जाती है।
आजादी के बाद गांधी जी ने नेहरू को एक पत्र लिखा। उसमें गांव के विकास की कल्पना का ताना-बाना प्रदर्शित था। पत्र का मजमून कुछ इस प्रकार था-'....तुम्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि मेरी कल्पना में वही ग्रामीण जीवन है जो आज हम देख रहे हैं। मेरे सपनों का गांव अभी तक मेरे विचारों में ही है। मेरे आदर्श गांव में बुद्धिमान मानव होंगे। वे जानवरों की तरह, गंदगी और अंधकार में नहीं रहेंगे। उसके नर-नारी स्वतंत्र होंगे और संसार में किसी के भी सामने डटे रहने की क्षमता वाले होंगे। सबको अपने हिस्से का शरीर श्रम करना होगा।Ó पंडित नेहरू ने इस पत्र का जो जवाब लिखा, अब उसके कुछ अंश- '.....मेरी समझ में नहीं आता कि गांव आवश्यक तौर पर सत्य और अहिंसा का साकार रूप क्यों होना चाहिए। सामान्यत: गांव बुद्धि और संस्कृति की दृष्टिï से पिछड़ा हुआ होता है और पिछड़े हुए वातावरण में कोई प्रगति नहीं की जा सकती। संकीर्ण विचारों के लोगों के लिए असत्यपूर्ण और हिंसक होने की संभावना ज्यादा रहती है। हमें गांव को शहर की संस्कृति के अधिक निकट पहुंचने के लिए प्रोत्साहन देना पड़ेगा। अक्तूबर १९४५ में भी गांधी जी ने पंडित नेहरू को एक पत्र लिखा था। उनका यह पत्र भारत और उसके गांव की परिकल्पना पर था। गांधी जी ने लिखा था- 'हमारे दृष्टिïकोण में जो भेद है, उसके बारे में लिखना चाहता हूं। यदि वह भेद बुनियादी है तब तो जनता को वह मालूम हो जाना चाहिए। उसे अंधकार में रखने से हमारे स्वराज्य के कार्य को हानि पहुंचेगी।Ó पत्र की इन पंक्तियों से साफ होता है कि गांधी जी के मन में स्वराज्य का जो खाका था, उससे पंडित नेहरू इत्तेफाक नहीं रखते थे और यह भी कि यह बात दोनों को पता थी लेकिन दोनों ही विचार-विमर्श के माध्यम से किसी ऐसे नतीजे पर पहुंचना चाहते थे जो कि देश की जनता के लिए हितकर हो। अब जब हम इतने दिनों बाद इन पत्रों के मजमून को देश की धारा की कसौटी पर परखते हैं तो दिखता है कि गांधी जी के विचार कहीं पीछे छूट गए हैं और पंडित नेहरू के विचार प्रभावी हैं। हम नेहरू के विकास की अवधारणा के करीब पहुंच रहे हैं। गांव को शहर बना रहे हैं जबकि संकीर्ण विचार गांव हो या शहर, कहीं भी पल और पनप सकते हैं। आज कथित विकास की दौड़ में आगे निकल रहे शहर हमारे देश के गांवों से सांस्कृतिक रूप से अभी भी पिछड़े हुए ही हैं। अब जिस विकास की रफ्तार को सरकारें हवा और पानी दे रही हैं, उसमें हैरानी की बात यह है कि भारत की७० फीसदी ग्रामीण आबादी सांस्कृतिक रूप से भी पीछे छूटती जा रही है। व्यवस्था भी इससे प्रभावित है। जातिवाद की राजनीति ने भी उसका रूप बदलने का काम किया है। वस्तुत: अब पिछड़ेपन की परिभाषा को बदलने की जरूरत है। आज जब ग्रामीण क्षेत्रों के विकास की बात होती है तो व्यवस्था ही अवरोध के रूप में खड़ी दिखाई देती है और यहीं गांधी जी के स्वराज का सपना टूटता हुआ दिखाई देता है। प्रति व्यक्ति आय में दुनिया में 147 वें स्थान पर। 29 करोड़ प्रौढ़ आज भी अशिक्षित हैं। 5 करोड़ बच्चों ने प्रारंभिक स्कूल का मुंह भी नहीं देखा है। 14 करोड़ लोगों को प्राथमिक स्वास्थ सेवाएं तक उपलब्ध नहीं हैं। विशिष्टï लोगों की सुरक्षा पर 361 करोड़ रुपये खर्च होता है। मंत्री परिषद् पर 50 करोड़ 52 लाख रुपये की बजट में व्यवस्था है। सरकार चलाने से सात गुना अधिक इन मंत्रियों की सुरक्षा पर खर्च है। देश की दशा सुधारने की जिम्मेदारी मूल रूप से सरकारों की है, वह चाहे राज्य की सरकारें हों अथवा देश की। जनप्रतिनिधि आज जिस दिशा में चल रहे हैं और राजनीति उन्हें जिस धारा की ओर बहा रही है, उसमें यह कम ही संभव दिखता है कि वह इस व्यवस्था से देश को उबारने में कामयाब होंगे। जनप्रतिनिधियों को चाहे वे पक्ष के हो या विपक्ष उन्हें उस जनता के दर्द को, उसके दुख को समझना होगा और लोकतंत्र के मंदिर में एक सार्थक चर्चा करनी होगी। आवश्यक चीजों और पेट्रों पदार्थो की कीमतों में वृद्घि की जिम्मेदारी से सरकार बच नहीं सकती। किसानों की आत्महत्या हो, भूख या गरीबी हो, बेरेाजगारी हो.... उससे सरकार अपना पल्ला झाड़ नहीं सकती। ऐसा क्यों है कि अनाज का इतना अधिक उत्पादन हो कि वह गोदामों में न अट पा रहा हो, अनाज सड़ रहा हों और उधर लोग बेकाबू महंगाई से त्रस्त हों। महंगाई की समस्या लगातार बनी हुई है और सरकार का रुख कुछ ऐसा है कि हम क्या करें? आंकड़े उठा कर देखकर देख लीजिए या याद पर ही जोर डालिए १९९९ में गेहंू सात रुपये प्रति किलो की दर से बिक रहा था। आज १७-१८ रुपये किलो गेहूं बिक रहा है। आम आदमी का साधारण चावल इन्हीं दिनों आठ रुपये किलो था, पर आज १६-२० रुपये प्रति किलो बिक रहा है। जानकारों का बताना है कि हमारे खान-पान की सामग्री की कीमत एक साल में २० प्रतिशत के लगभग बढ गई है। अर्जुन सेन गुप्त एवं अन्य जानकारों के यह कहने से क्या फर्क पड़ता है कि हमारे देश में ८४ करोड़ लोगों की प्रतिदिन औसत आय बीस रुपये है। यह आइने की तरह साफ है कि हमारे देश के तत्कालीन कर्णधारों का यह सपना नहीं था कि जिसके हाथ में देशवासी अपनी तकदीर सौंप रहे हों, वह घपले और घोटाले करे तथा जेल की शोभा बढ़ाए। आज देश के कर्णधारों को ही यह सोचना होगा कि देश को इन परिस्थितियों से उबारने का रास्ता क्या हो?

सांप गुजरने के बाद लकीर की पिटाई

-संतराम पाण्डेय-
अध्यात्म के देश में अब एक अजीब तरह का बदलाव आ रहा है। आध्यात्मिक आयोजनों में भगदड़ मच रही है और लोग दब और कुचल कर प्राण त्याग कर रहे हैं। अभी हाल ही में हरिद्वार में एक आयोजन में भगदड़ हुई जिसमें अनेक लोगों की जानें गई। अशांत मनुष्य शांति के लिए भटक रहा है। एक समृद्ध आध्यात्मिक देश में इस तरह की घटना अत्यंत दुखद है। इसके पूर्व भी देश में अनेक घटनाएं हो चुकी हैं। इसलिए और दुखद यह है कि इन घटनाओं को रोकने के लिए कोई सार्थक उपाय नहीं किए गए। सिवाय एक दूसरे पर दोषारोपण के। कथा और प्रवचन हमारी परंपराओं में शामिल हैं। इसलिए समाज के हर व्यक्ति का दायित्व है कि शांति की तलाश में जुटे हर व्यक्ति की सुरक्षा समाज और प्रशासन भी करे। ऐसे आयोजनों में व्यवस्था के लिए प्रशासन का दायित्व है कि वह स्वत: स्फूर्त हो व्यवस्था में भागीदारी करे। ऐसा न होने के पीछे कारण यह लगता है कि हम कहीं न कहीं अध्यात्म से विमुख हो रहे हैं।
अध्यात्म को लेकर अब तरह-तरह की चर्चाएं भी होती हैं लेकिन उनका कोई सार्थक हल नहीं निकल रहा है। परिणाम यह है कि अध्यात्म से जुड़े लोगों में एक अजीब तरह का भटकाव आ रहा है। अध्यात्म से जो शांति मिलनी चाहिए, वह नहीं मिल रही है। अध्यात्म को लेकर एक परिवर्तन और देखने को मिल रहा है। वह यह कि आध्यात्मिकजनों में एक अजीब किस्म की बेचैनी परिलक्षित हो रही है। नतीजा यह कि उनको शांति के लिए भटकना पड़ रहा है। दरअसल इस भटकाव के पीछे एक बात यह भी है कि अध्यात्म की तरह-तरह की परिभाषाएं गढ़ ली गईं हैं। इसलिए यह जरूरी है कि पहले अध्यात्म की सही परिभाषा समझें। अध्यात्म शब्द आत्म में अधि उपसर्ग लगाकर बना है जिसका अर्थ है आत्मा को ऊपर उठाना अथवा आत्मोन्नति। जो व्यक्ति परम-आत्मा में स्वयं को सम्मिलित मानता है वह अध्यात्म के स्वयं को करीब मानता है। आत्मिक उन्नत्ति प्राप्त करने के बाद यह महसूस होने लगता है कि परमात्मा का ही अंश हममें विद्यमान है। इसलिए हम परमात्मा के ही अंश हैं। यह तथ्य स्पष्टï होने के बाद व्यक्ति वही कुछ करता है जो उसकी आत्मा निर्देशित करती है और आध्यात्मिक व्यक्ति मानते हैं कि आत्मा का निर्देशन कभी गलत नहीं होता। समाज में आज तरह-तरह की भ्रांतियां फैली हैं। इन भ्रांतियों से छुटकारा पाने के लिए जरूरी है कि व्यक्ति आध्यात्मिक हो। अध्यात्म और समाज का बड़ा गहरा संबंध है। समाज अध्यात्म के बिना पंगु है। बिना अध्यात्म के उसे सही निर्देशन नहीं मिल सकता। परिणामस्वरूप उसमें आसुरी प्रवृत्तियां जन्म लेने लगती है और वह असुरों जैसा व्यवहार करने लगता है जो कि समाज विरोधी है। एक तरह से यह कहा जाए कि समाज अध्यात्म की कसौटी है और अध्यात्म समाज की आत्मा तो उचित ही होगा। अध्यात्मविहीन समाज में जब आसुरी प्रवृत्तियां बढऩे लगती हैं तो सामाजिक और मानवीय मूल्यों तथा सभ्यता और संस्कृति का पतन होने लगता है। त्रेता युग में श्रीराम का अवतार ऐसे वक्त हुआ जब आध्यात्मिक शक्तियों का पूरी तरह पतन होने लगा था। उन्होंने अध्यात्मविहीन समाज में आसुरी प्रवृत्तियों को नष्टï करने का बीड़ा उठाया। इसका परिणाम यह हुआ कि समाज फिर से अध्यात्म के साथ चलने लगा।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में स्पष्टï बताया है कि अध्यात्म से जुड़े रहने के लिए सबसे आसान उपाय क्या हैं? कलयुग में केवल राम-नाम का जप ही एक आधार बताया गया है। महाकवि दूरदृष्टïा थे। शायद उन्होंने समझ लिया था कि कलयुग में मनुष्य के पास इतना वक्त नहीं रहेगा कि वह वर्षों तो क्या घंटे भर भी अपनी आत्मिक शांति के लिए अध्यात्म से जुड़े रहने का उपाय कर सके। इसीलिए नाम को ही उन्होंने आधार बताया। अध्यात्म से ही समाज में नैतिकता की स्थापना होती है। एक अध्यात्मविहीन समाज के अनैतिक होने की शत-प्रतिशत संभावना बनी रहती है।
द्वापर में गुरु द्रोणाचार्य ने पांडव और कौरवों को नैतिकता का पहला पाठ पढ़ाते हुए कहा था कि सत्यम् वद अर्थात् सत्य बोलो। उनका मानना था कि सत्य के साथ ही नैतिकता की स्थापना हो सकती है। इतिहास साक्षी है कि समाज नैतिकता के बल से ही प्रतिष्ठित होता है। जिन्होंने उनकी शिक्षा को ग्रहण किया वह नैतिक बने और जो नैतिकता का यह पहला पाठ नहीं पढ़ सके वह अनैतिक हो गए और उन्हीं का विनाश हुआ। अनैतिक समाज में लोभी, कपटी, झूठे, आतताई और निर्लज्ज व्यक्तियों का बोल-बाला हो जाता है जिससे अध्यात्म समाप्त हो जाता है। एक नैतिक व्यक्ति अध्यात्म को जीवित रखता है। स्वामी विवेकानंद ने भी नैतिकता का यही पाठ शिकागो में पढ़ाया। हमारे अनेक महापुरुषों का उद्देश्य यही रहा है कि समाज में अध्यात्म की स्थापना हो और समाज नैतिक बने। नैतिकता की कोई पाठशाला नहीं होती परिवार व्यक्ति की प्रथम पाठशाला है और मां प्रथम शिक्षक है। परिवार ही समाज की प्रथम इकाई हैं। जहां से व्यक्ति की शिक्षा-दीक्षा शुरू होती है। इसीलिए अध्यात्म और नैतिकता का पाठ पढ़ाने में माताओं की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। इसीलिए समाज की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह मातृ शक्ति के उत्थान के लिए कदम उठाए। आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर ने अभी हाल ही में कहा है कि सिर्फ अध्यात्म से ही भ्रष्टïाचार को समाप्त किया जा सकता है। उन्होंने स्पष्टï कहा कि अपनत्व और अध्यात्म का अभाव है जिसकी वजह से भ्रष्टïाचार पनप रहा है। हम अपनी परंपराओं, सभ्यता और संस्कृति पर निगाह डालते हैं तो साफ दिखाई देता है कि हमारी सभ्यता और संस्कृति तथा परंपराएं बड़ी समृद्ध रही हैं। अध्यात्म के कारण ही भारत को विश्व गुरु का दर्जा मिला था। आज जगह-जगह प्रवचन और कथाओं का आयोजन किया जाता है। हजारों-लाखों लोग उसमें एकत्र होते हैं। तर्क यह होता है कि यह सब अध्यात्म और नैतिकता की स्थापना के लिए हो रहा है लेकिन समाज पर इनका असर नहीं पड़ रहा है। न समाज आध्यात्मिक बन पा रहा है और न ही नैतिक। ऐसा आभास होता है कि हमारे कर्म में कहीं न कहीं त्रुटि है जिसे हमें खोजना चाहिए। भौतिक उन्नति से मनुष्य संतुष्टï नहीं हो सकता। आध्यात्मिक उन्नति जरूरी है और उसी से समाज नैतिक बनेगा। हरिद्वार गायत्री पीठ में हुई घटना के लिए अब दोषियों की तलाश हो रही है। यानि सांप के गुजर जाने के बाद लकीर पीटी जा रही है। वस्तुत: इस घटना के लिए दोषी हमारी वह व्यवस्था है जो अध्यात्म और परंपराओं से विमुख होती जा रही है। वास्तव में अध्यात्म हममें रचा-बसा है। इससे विमुख होकर केवल कष्टï ही मिल सकता है और अध्यात्म युक्त समाज नैतिकता के सहारे तरक्की की राह पर अग्रसर रहेगा।

Aug 23, 2011

वाह भई वाह ! इस बच्ची ने तो डीजे कि धुन पर तो कमाल ही कर दिया ।


सानु जी नाना कि गोद में । कह रहे हैं मेरी फोटो ध्यान से खींचना ।


प्रेम से बोलो जय माता दी । भोज पर भाई लाविन्द्र के साथ इन्द्रमोहन आहूजा और हम .


Aug 18, 2011

हम साथ साथ


भोज के मौके पर आशा , रीमा और मेरी बेटी प्रियंका


भोज पर हम डॉ जी एस भटनागर जी के साथ ।


जब हम बेटे कि शादी के भोज पर मिले

Aug 17, 2011

हमारा कसूर क्या है

हमने उन्हें चुना
जो लगे अच्छे
अब वो बिगड़ गए
तो मेरा कसूर
क्या है !
वो आये थे वोट मांगने
दे दिया हंसकर
अब वो रुलाने लगे
तो मेरा कसूर
क्या है !

Aug 12, 2011

ट्रैफिक व्यवस्था पर भीड़ भारी

सड़क पर बढती भीड़ अब ट्रैफिक व्यवस्था पर भारी पड़ रही हैं। रोज व्यवस्था सुधारने की बातें होती हैं लेकिन हालात सुधरते नही। हालत यह है जैसे चादर जरूरत से ज्यादा छोटी है। एक तरफ पैर ढंकते है तो दूसरी तरफ बदन उघड़ जाता हैं। अधिकारी ट्रैफिक से परेषान है और सड़क पर चलने वाले लोग व्यवस्थ से। न व्यवस्था सुधर रही है और न लोगों की समस्या का समाधान हो रहा है। जिस तरह से विभागीय अधिकारी व्यवस्था बनाने में ओैर पब्लिक इस समस्या से जूझ रह हैं, उससे लगता है कि सटीक समाधान की दिषा में हमारे ेकदम बढ ही नहीं पा रहे हैं। यानि कि मर्ज कुछ और है और दवा कुछ और दी जा रही है। इससे इलाज कहां संभव है। परिणाम सामने है कि रोज दुर्घटनाएं हो रही हैं और लोग मर ाहे हैं या अपंग हो रहे हैं। सुचारू ट्रफिक के लिए जो नियम कायदे बने हैं, उनका पालन करना लोग अपनी हेठी समझते हैं। जगह-जगह सड़कों के किनारे लिखा मिल जाता है कि षराब पीका वाहान न चालाएं, जगह मिलने पर ही ओवरटेक कों लेकिन लोग हैं कि मानते ही नहीं। खुद भी टक्का खा रहे हैं और दूसरो को भी टक्कर दे रहे हैं।सड़क की भीड़ केवल भारत की ही समस्या नहीं है। कई देषो मे ट्रैफिक समस्या है। कुछ दंषो ने समाधन ढूंढ लिए और कुछ अभी संघर्श कर रहे हैं। जिन देषों ने अपने देष की जरूरतों, सामाजिक ढांचे और संसाधनों को ध्यान मे रखा,वह इस समस्या से पार पा चुके है। लंदन, थाइलैंड, मलेषिया और जापान जैसे दषों मे लोग जाम से निजात पा चुके हैं। लंदन मे कई स्थान अैर बाजार ऐसे हैं, जहां केवल पब्लिक ट्रांस्पोबर्् से ही जाया जा सकता है। निजी वाहन या तो घर छोड़कर लोग जाते हैं अथवा पार्किग मे पार्क करतेे हैं। यह नियम पूरी स्ख्ती से लागू किया जाता है कि प्वाइंटेड बिंदुओं पर जाने के लिए पब्लिक ट्रांस्पोर्ट का ही सहारा ले। कुछ देषों ने एक और विकल्प तैयार किया है। बाजार अथवा भीड़-भाड़ वाले स्थान पर यदि कोई अपनी गाड़ी से जाता है तो उसके लिए उसे ााएक तयषुदा धनराषि टैक्स के रूप् में अदा करनी पड़ती है। अपने देष की बात करें जो यह समस्या किसी एक षहर की नहीें है। देष केक प्रायः सभी छोटे-बड़े षहर इस समस्या से जूझ रहे हैं और ट्रेैफिक नियमों का परलन न करने से देष की सड़के रोज खून से लाल हो रही है। दरअसल ट्रैफिक के दो परबर्् हैं-षहरी ट्रफिक ओैर हाई-वे ट्रैफिक। षहरी ट्रफिक जाम जैसी समस्या को जन्म देता है जिसमें बेषकीमती तेल का दुरूप्योग होता है और हाई-वे ट्रैफिक दुर्घटनाओं को दावकत देता है जिसमे बेषकीमजी जानें जाती हैं। सुचारू ट्रैफिक की व्यवस्था से दोनों को रोका जा सकता है लेकिन इसके लिए हमें परंपरागत ट्रफिक व्यवस्था सक दामनों को रोका जा सकता है लेकिन इसकके लिए हमें परंपरागत ट्रैफिक व्यवस्था को अपनाने की ओर उन्मुख होना पढ़गा। केसी हो हमारी परंपरागत ट्रैफिक व्यवस्था, इस ओर भी हमें ध्यान देना होगा।अभी तो केवल हवा में तीर मारे जा रहे हैं। सड़कों के किनारे चेतावनी लिख देने मात्र से काम नहीं चलने वाला, जो ट्रफिक प्लान बने, उस पर अमल भी उसी तत्परता से हो।इस दिषा मे एक बात और आड़े आ रही है। ट्रैफिक की समस्या के समाधान में लोगों का जो सहयोग मिलना चाहिए वह नहीं मिलता। समस्याओं को टालना, उनका सामना न करना या अस्थाई समाधान खोजना लोगों की आदत बन गई है। षहरों का अंधाधंुध ओैर बिना समझे-बूझे विस्तार, पब्लिक ट्रांसपोर्ट का अभाव, सड़को और पुलों का अभाव, यातायात के नियमों का पालन न करना आदि कारण हैं जिन पर समग्र रूप् से विचार किए जाने की जरूरत है। प्रषासन का रवैया टालने वाला है। जाहिर हैं समस्या के प्रति गंभीर रूझान का अभाव और व्यक्तिगत ढंग से समाधान खोजने की प्रवृति से समस्या विकराल रूप् धारण कर रही है।एक समस्या और है जो हमारी सोच से जुड़ी है। सड़को पर चलने वाली गाड़ियां संपन्नता का प्रतीक बन गई हैं। इसका परिणम साफ दिख रहा है कि चार सदस्यों के संपन्न परिवारो मे चार नहीं छह-छह गाड़िया है और जब वह कहीं निकलते हैं जो अलग-अलग गाड़ियो मे सड़को पर उतरते हैं। संपन्नता बढ़ी है। जो लोग पहले साइकिलों से चलते थे, अ बवह गाड़ियो से चलने लगे हैं। संपन्नजा का बढना किसी भी देष और षहर की आवष्यकता तथा उपलब्धता को भी याद रखना जरूरी है। सडकें कम हो अथवा उनकी चौड़ाई कम हो तो संपन्न लोगों को स्वतः ही इससे बचना चाहिए। लेकिन हमारे देष मे इसका उल्टा हो रहो है। अपने षहर की अति च्यस्त बाजार में ही क्यों न जाना हो, लेकिन कार से ही जाएंगे और कार वहां तक जाएगी, जहां हमें खरीदारी करनी होगी, भले ही बाजार मे कितनी भीड़ क्यो न हो। यह सामंती सोच को दर्षाती है। इससे बचना होगा और पार्किग की व्यवस्था करनी ही होगी तथा सुचारू ट्रैफिक के लिए जो नियम बानाए गए है उनका पालन करना ही होगा। आज ट्रैफिक लाइटों का भी अतिक्रमण करते लोगों को देखा जा सकता है। उन्नीसवीं षताब्दी मे जब ट्रैफिक लाइट की षुरूआत हुई तो उस समय मोटर गाड़ियो का प्रचलन नहीं था। लंदन मे ब्रिटिष पार्लियामेंट हाउस के निकट दुनिया की पहली ट्रैफिक लाइट लगी थी। इसके नीचे एक लालटेन रखी जाती थी और लाइट को घुमाया जाता था। बाद मे इसमें काफी सुधार हुआ। 1912 मे एक पुलिय अधिकारी लेस्टर वायर ने इसका आविश्कार किया। आज षहरों के अति व्यस्त चौराहों तथा दुर्घटना संभावित स्थानों पर ट्रैफिक लाइट लगी होती है, लेकिन लोग उसका अनुसरण नहीं करते जो कि दुर्घटनाओं और जाम का कारण बनती हैं।दुर्घटनाओं और सड़कों पर लगने चाले जाम से छुटकारा पाने के लिए जरूरी है कि लियमों का पालन सख्ती से हो और भीड़भाड़ वाले स्थानों पर वाहन प्रतिबंधित किए जाएं।

Aug 11, 2011

मेरा घर

लगता है कि
यह मेरा ही
घर है
वही जो काफी
पहले कही गम गया था
अब आकर
मिला दुबारा
मेरे अपनों के साथ
मेरा अपना घर।

Aug 9, 2011

जीवन में भटकाव, समस्या की जड़

‘शिक्षा प्रारम्भ करने से पहले एक शिष्य गुरु से अपनी कुछ शंकाओं का समाधान करने के उद्देश्य से आया। उसने गुरु से पूछा-मनुष्य के जीवन का उद्देश्य क्या है? गुरू ने जवाब दिया- मैं नहीं बता सकता। शिष्य ने फिर पूछा-जीवन का अर्थ क्या है? गुरू ने फिर मना कर दिया। इसके बाद शिष्य ने पूछा- मृत्यु क्या है और उसके बाद कौन सा जीवन है? गुरू जी फिर कहा- हम नहीं बता सकते। अब तक शिष्य झल्ला चुका था। यह सोचकर कि जब गुरु जी कुछ बता ही नहीं सकते तो यहां शिक्षा प्राप्त करने से क्या लाभ? गुरू जी के अन्य शिष्यों ने उसके इस तरह से चले जाने को गुरु का अपमान समझा। कुछ ने यह भी समझ लिया कि लगता है कि हमारे गुरु जी को ज्ञान नहीं है। शिष्यों के मन में चल रही उथल-पुथल को गुरु जी भांप गए और बोले-जिस जीवन को तुमने अभी तक जीना प्रारंभ ही नहीं किया है, उसके बारे में जानकर क्या करोगे। सामने रखे भोजन के बारे में अटकल लगाने से अच्छा होगा कि उसे चखकर देख लिया जाए। ‘एक दार्शनिक अन्थोनी डिमेलो ने कहा-‘जीवन विचार से नहीं, अनुभव से मिलता है।’मोटे तौर पर जन्म से मृत्यु तक बीच की अवधि को जीवन कहते हैं। जीवन अपनी इच्छा से नहीं मिलता है। यह नर और मादा के समागम का परिणाम है जो कि प्रकृति का नियम है। जीवन का एक आवश्यक अंग चेतना है जो मनुष्य की गतिविधियों को संचालित करती है और वही उसकी साक्षी भी होती है। यही वह तत्व है जो जीवन को सार्थकता प्रदान करता है। एक दिशा प्रदान करता है। यह मनुष्य के जीवन को उद्देश्यवान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। एक तरह से यह जीवन के शरीर के कंप्युटर की हार्डडिस्क की तरह है।जीवन के बारे में यह कुछ बताने का अभिप्राय यह है कि आज मनुष्य की जिंदगी उलझ गई है, मनुष्य इस उलझाव में फंस गया है और उसे इस उलझाव से कैसे बाहर निकाला जाए। इस उलझाव का एक परिणाम यह है कि मनुष्य का जीवन सार्थक नहीं बन पा रहा है। वह कार्य नहीं कर पा रहा है, जो उसे करना चाहिए। करना भी चाहता है तो भटक जाता है। बहुत कुछ पाने की लालसा में उसे कुछ नहीं मिल पा रहा है। ऐसा क्यों है, इस बारे में न कोई सोचने को तैयार है और न ही कुछ ऐसा पा रहा है कि उसके जीवन को सार्थकता मिले;अब यही देखिए। एक छोटा सा उदाहरण। किसी युवक को मनचाही मंजिल न मिली तो वह खुदकुशी कर लेता है। उसे सब कुछ चाहिए लेकिन उसे पाने के लिए जो श्रम व त्याग की अपेक्षा है, वह उससे नहीं हो पाता। यहीं कुंठा जन्म लेती है। रोज ऐसी घटनाएं सुनने व देखने को मिलती हैं, जब लोग मनचाहा हासिल न कर पाने से परेशान होकर अपना जीवन समाप्त कर लेते हैं। कोई पंखे से लटक जाता है, कोई ट्रेन के नीचे लेट जाता है, कोई सल्फास की गोलियां गटक जाता है, तो कोई बहुमंजिली इमारतों से छलांग लगा लेता है। तरीका कुछ भी होता है लेकिन उसका परिणाम एक ही होता है, जीवन की समाप्ति। अब तो मां-बाप बच्चों को कुछ कहते हुए डरने लगे हैं कि कहीं उनका बच्चा कुछ कर न बैठे। यह डर आज ही पैदा नहीं हुआ है। एक लम्बे समय का अंतराल बीतने के बाद फिजाओं में इस तरह की सनसनी व्याप्त हो गई है जो लोगों को जीवन की सार्थकता से दूर धकेल रही है। इसकी चपेट से बचना आसान नहीं है लेकिन कठिन भी नहीं है। पहले संयुक्त परिवार हुआ करते थे। घर के बड़े-बूढ़े बच्चों में समझदारी आने से पहले उन्हें जीवन के बारे में बहुत कुछ बताया करते थे; वह अकेला जीवन रहकर जीवन कैसे जिएगा, इसके लिए तैयार करते थे। उन्हें पता था कि एक दिन वह संतान को छोड़कर चले जाएंगे। उनकी संतान अकेले रह जाएगी। जीवन अकेले ही जीना पड़ेगा। इसलिए वह उसे जीवन जीने लायक बनने में मदद करते थे। अब ऐसा नहीं रहा। बच्चा चलने लायक हो गया तो उसे स्कूल भेज दिया। उनके पास समय नहीं है कि वह बच्चे को अपने पास रखकर जीवन जीने के लिए जरूरी बातें बता सकंे। अगर खुदकुशी की परिस्थितियों की बात करें तो समाज मे युग-युगांतरों से रही है। कई काबिल लोगों ने भी खुदकुशी की है लेकिन ऐसी घटनाआंे को दुर्लभ माना जाता था और उनके कारणों को तलाशा जाता था। ऐसी दुर्लभ घटनाओं के भी उदाहरण हैं। प्रसिद लेखक हेमिन्वे जिन्होंने ओल्ड मैन एंड द सी जैसा आशा का संचार करने वाला अद्भुद उपन्यास लिखा लेकिन अंत में उन्होंने भी न जाने किन तनावों अथवा अवसाद के कारण खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली। भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहे गए। उन्होंने दुनिया को राह दिखाई। रामराज की स्थापना की लेकिन न जाने कौन से ऐसे कारण रहे होंगे कि उन्होंने सरयू में जल समाधि लेकर अपना जीवन समाप्त कर लिया। यह बड़ा पेचीदा मनोविज्ञान है। लगता है कि दिनोंदिन लोग अकेले होते जा रहे हैं। अब समाज अथवा परिवार में ऐसे लोग कम होते जा रहे हैं, जो किसी के कुछ ऊंच-नीच सोचने पर कह सकें-बड़ा आया समझदार बनने, देंगे कान के नीचे खींच के एक। मानना होगा कि जीवन एक यात्रा है। हम सभी यहां के यात्री है। जो इसके यथार्थ को समझ लेता है, जीने का सही अर्थ जान लेता है, वह सफल हो जाता है। आज प्रगति के साथ-साथ जीवन और समाज में तमाम तरह की विसंगतियां आती जा रही हैं। तमाम प्रकार की बुराइयों से मनुष्य घिरता जा रहा है। परिस्थितियां कुछ ऐसी बन रही हैं कि तमाम सफल लोग भटकाव के शिकार हो रहे हैं। वह बुराइयों के शिकार आसानी से बने जा रहे हैं। इसका असर शासन सत्ता में ऊंचे बैठे लोगों पर ज्यादा दिखाई दे रहा है। इससे बचा जा सकता है। बशर्ते मनुष्य चेतना का सही इस्तेमाल करें। यह जिंदगी की सच्चाई है कि सब कुछ नष्ट हो जाने के बाद भविष्य बचा रहता है। इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए। ठोकर लगने के बाद संभलने की क्षमता समाज में ही हासिल होती है। कवि रवीन्द्र प्रभात की कुछ पंक्तियां इस संदर्भ में बड़ी मौजूं हैं- ‘हंसोगे, रोओगे, गुनगुनाओगे/जिंदगी के मायने समझ जाओगे/मिल जाएगी मोती तुम्हें भी, तब/जब समुद्र में गहरे उतर जाओगे/मां कहती है अक्ल आ जाएगी/जब किसी मोड़ पर ठोकर खाओगे।’


Jun 10, 2011

किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत की कुछ फोटो





















टिकैत का जाना



टिकैत एक आयरन मैं थे । वह किसी से नहीं लड़ते थे । वह केवल समस्या से लड़ते थे और इसीलिए वह किसानो के मसीहा बन गए । उनका जाना हमेशा खलेगा । हम एक बार उनसे मिले चुनाव के दौरान लेकिन उन्होंने किसी दल के समर्थन की बात नहीं कही ।

Jun 8, 2011

महंगाई से जनता बेदम, सरकार को नहीं गम

गोदामों में सड़ रहा है लाखों टन खाद्यान : देश की एक बड़ी आबादी को नहीं मिल रहा दो वक्‍त का भोजन : बाजारों पर सरकार का नियंत्रण नहीं : गालिब ने कहा था- 'ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले, निकलना खुल्द से आदम का सुनते आए थे लेकिन, बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले।' आमजन पर ये पंक्तियां आज भी मौजूं हैं। आमजन जो चाहता है, वही नहीं होता। यों तो उसी की सरकार है, उसी के लिए है, उसी की बनाई हुई है, फिर भी जन अपेक्षाएं सरकारों की चौखट पर दम तोड़ रही हैं। आप कभी बाजार गये हैं? यह सवाल इसलिए कि बाजार जाने वाला ही बाजार का दर्द जान सकता है। आज सड़क से लेकर संसद तक महंगाई की चर्चा जुबां पर है, वह चाहे नेता हो या आम जन। महंगाई को लेकर देश की व्यवस्था इसलिए आरोपों के घेरे में हैं क्योंकि उसी की लापरवाही और अदूरदर्शिता के कारण चीजों के दाम आसमान छूने लगे हैं।
बाजार का रुख केवल उपलब्धता पर ही निर्भर नहीं करता, और भी कुछ कारण जुड़े हैं। बाजार से आम जन की रसोई जुड़ी हुई है। बाजार के उतार चढ़ाव के हिसाब से रसोई में भी उतार चढ़ाव चलता रहता है। आंकड़ों की बात करें तो देश के ढेर सारे नागरिक दो वक्‍त की रोटी के लिए भी मोहताज हैं। कभी उनकी रसोई में रोटी है तो सब्जी नहीं और चावल होता है तो दाल नहीं। इसका कारण महंगाई और अव्यवस्था दोनों हैं। अभी हाल ही में सूचनाएं आई थी कि सरकार द्वारा खरीदा गया लाखों कुन्तल गेहूं बारिश में भीगने के कारण नष्ट हो गया। इस पर राजनीतिक क्षे़त्रों में गरमा-गरमी हुई। मामला कोर्ट के संज्ञान में पहुंचा तो कोर्ट ने भी व्यवस्था को दोषी ठहराते हुए कहा कि यदि अनाज सुरक्षित नहीं रखा जा सकता तो उसे गरीबों में बंटवा क्यों नहीं देते। माना जाए तो यह टिप्पणी व्यवस्था पर बहुत बड़ा तंज है। जब देश के असंख्य नागरिकों को एक वक्त की रोटी भी नसीब न हो रही हो तो ऐसे में सरकारी खरीद और कल के लिए अनाज बचाकर रखने की सोच किस काम की है ?
बात बाजार की हो रही है। आजकल बाजार अमूमन बाजार वालों के हिसाब से चलता है। किसी भी बाजार में चले जाइये, वस्तुओं की रेट सूची नदारद ही मिलेगी। यह हालत केवल खाद्य पदार्थो में ही शामिल वस्तुओं की ही नहीं है। कपड़ा, फर्नीचर, वाहनों पर यात्री किराया जैसी सभी बातें इसमें शामिल हैं। जो रेट बाजार ने तय कर दिया, वही लागू हो जाता है, लेकिन वह भी पूरी ईमानदारी के साथ नहीं। जैसा ग्राहक मिलता हैं, उसी तरह रेट तय हो जाता है, वह व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी हैं कि एक ही बाजार में एक ही चीज के कई -कई रेट मिलते हैं। चीजों के रेट में उतार और चढ़ाव के पीछे और भी कई कारण है। इसमें मिलावट सबसे प्रमुख है। कोई भी शुद्धता की गारंटी नहीं ले सकता, वह चाहे व्यवस्था से ताल्लुक रखता हो अथवा हो अथवा वह उपभोक्ता हो। मिलावट ही वह रोग है, जिससे उपभोक्ता दो तरह से पिस रहा है। अधिक कीमत अदा करने के बावजूद किसी उपभोक्ता को शुद्ध सामग्री मिल ही जाएं, इस बात की गांरटी नहीं है। बाजार पर अकुंश लगाने के लिए जो व्यवस्था बनाई गई है, वही पूरी तरह निरंकुश है। व्यवस्था ही संदेश के घेरे में बनी रहती है। मिलावटियों के खिलाफ अभियान चलाने वाले कभी गंभीर हुए हों, याद नहीं आता।
हमारे समाज की रीत है कि घरेलू चीजों की ज्यादातर खरीदारी महिलाएं ही ज्यादातर करती हैं। उन्हें बाजार के बारे में ज्यादा पता होता है। उनकी नजर शुद्धता की पहचान करने में भी पुरूषों से ज्यादा पैनी होती है। इस कार्य में पुरूषों को फिसड्डी साबित करना हमारा मकसद नहीं है लेकिन सच्चाई यही है कि महिलाएं खरीदारी में ज्यादा निपुण होती है। संवैधानिक तौर पर देश की व्यवस्था इतनी चाक-चौबंद बनाई गई है कि यदि सब अपने-अपने मोर्चे पर ईमानदारी से डटे रहें तो गड़बड़ी का सवाल ही नहीं है, लेकिन यदि ऐसा हो जाए तो फिर अव्यवस्था शब्द को ही शब्दकोश से निकालना पड़ जाएगा। अभी जब विपक्षी दलों ने सरकार को मंहगाई के मसले पर घेरा तो सरकार परेशान हो उठी। सरकार को अपनी कुर्सी खतरें में दिखाई देने लगी। विपक्षी दलों को भोज पर बुलाकर सब कुछ मैनेज कर लिया गया।
देश की जनता को क्या सवाल पूछने का हक नहीं है कि यदि सरकार नागरिकों को तयशुदा रेट पर सामग्री नहीं दिला सकती और बाजार को नियंत्रित नहीं रख सकती तो उसे सत्‍ता में बने रहने का हक क्यों दिया जाए? लेकिन लगता है कोई भी राजनीतिक दल जनता की इच्छाओं से सरोकार रखता ही नहीं। इस सवाल का जबाव जनता को कौन देगा कि उसे हर चीज सुलभ क्यों नहीं हो पा रही हैं? इसके लिए जो भी तत्व जिम्मेदार हैं, उनके खिलाफ कार्रवाही करने में हीला-हवाली क्यों की जाती हैं? कभी इसी देश में सुना जाता था कि कम अथवा गलत तोलने वाले के हाथ काट लिए जाते थे। यदि कभी ऐसा होगा रहा होगा तो यह भी सच है कि उस वक्त की सरकारें आज की सरकारों से ज्यादा संवेदनशील रही होंगी। यह भी जाहिर है कि उस किस्म की सरकार को अपनी नहीं, जनता की चिंता ज्यादा रहती होगी। क्या आज? जबकि देश में जनता की, जनता के लिए सरकारें हैं तो जनता के सापेक्ष व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती ?
देश में सरकारें चलाने वाले राजनीतिक दलों की अपनी-अपनी विचारधाराएं है और सभी जनता के लिए अच्छी हैं तो सवाल उठता है कि अब वह जनता की कसौटी पर भोथरी क्यों हो गई हैं? केंद्र की सत्‍ता में बैठे दल का दावा है कि वह देश के सभी फिरकों और पक्षों को साथ लेकर चलने मे सक्षम है तो क्या कारण है कि आज जनता की अपेक्षओं पर वह फिसड्डी साबित हो रही हैं? एक दल दावा करता है कि समाजवाद की विचारधारा उसे विरासत मे मिली है लेकिन लगता है कि वह भी समाज वाद को भूल बैठा है। एक और दल स्वयं को बहुजन समाज के हितों का पोषक होने का दावा करता है लेकिन उसके राज में आज बहुजन के हित ही भट्ठी पर चढ़ रहे हे। कोई दल हिंदू हितों का पोषक होने का दावा करता है लेकिन समाज में उनकी नीतियां भी कसौटी पर खरी नहीं उतर रही हैं। ऐसा क्यों ? दल अपनी-अपनी नीतियों ये डिगे हुए क्यों है ?
महंगाई की बात करें तो इस एजेंडे पर यूपीए नाकाम साबित हुई है। महंगाई पर आज सबसे ज्यादा असर पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतों ने डाला है। सरकार पर यह आरोप लगता ही रहता है कि उसके कई मंत्री पूंजीपति घरानों के संपर्क में रहते है इसलिए उनके खिलाफ कुछ करने का साहस उनमें नहीं है। इससे एक बात यह भी साबित होती है कि राजनीतिक स्पेस में ठंसे हुए नेताओं के बीच जनता की पक्षधर कोई जमात नहीं है, जो उसके हितों की जोरदार वकालत का सके। व्यवस्था बनाने में नौकरशाही की महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन नौकरशाही जनहितों की परवाह करने में नाकाम साबित हो रही है। ऐसी स्थिति में बाजार के मालिक बाजार वाले खुद ही बन बैठे हैं तो इसके लिए देश की जनता अथवा बाजार नहीं, सरकार और व्यवस्था खुद ही जिम्मेदार है। आज यह भी समझ लीजिए कि महंगाई को लेकर जनता मे जो गुस्सा है, वह किसी राजनीतिक दल के खिलाफ बागी न बना दे। आज वह छटपटा रही है। जनता की छटपटाहट दूर करने के लिए सरकार को इस बौनी व्यवस्था के खिलाफ कुछ निर्मम फैसले लेने पड़ सकते है लेकिन ऐसा करने के लिए मजबूत इच्छा शक्ति का होना जरूरी है।

May 18, 2011

राजनीति नहीं,चिंतन का समय

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम 1857 में किसान मजदूर मिलकर भारतीय सिपाहियों के साथ अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ कंधे से कंधा मिलाकर लडे। सिपाही भी किसान के तो बेटे थे लेकिन आज श्रम संस्कृति की जमीन पर एक भारतीय किसान आज हिंसक कैसे हो गया एक किसान जो रात दिन खेतों में काम करके सारे देश के भोजन का इंतजाम करता है, वह इतना स्वार्थी कैसे हो गया कि अब अपने सिवाय कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा है । जिस किसान के हाथ में हल कुदाल फावडा जैसे उपकरण होते रहे अब आज अचानक उन हाथों में बंदूक कैसे पहुंच गई देश की रक्षा और सुरक्षा के लिए इसी देश में जब किसान को महत्वपूर्ण मानते हुए जय जवान के साथ ही जय किसान का नारा बुलंद हुआ था, तो किन परिस्थितयों के चलते आज उसी किसान के सीने जवानों की बंदूकों से छलनी हो रहे हैं सवाल बहुत है इनके जवाब खोजे जाने जवानों की बंदूकों से छलनी हो रहे है सवाल बहुत है इनके जवाब खोजे जाने है लेकिन देश की राजनीतिकों ने जैसे अन्य रास्तों पर देश का भविश्य और साख पर बट्टा लगाने का काम किया है ऐसे ही इन सवालों के जवाब खोने वालों को भी आज की राजनीति ने भटका दिया है। भारतीय किसान का रूप क्या है, पहले यह समझ लेना चाहिए फिर इस सवाल का ज वाब मांगा जाए वह कैसे भटक गया दरअसल भारतीय किसान परिश्रम सेवा और त्याग की जीवंत मूर्ति है उसकी सादगी सरलता उसके सात्विक जीवन को प्रकट करती है; किसानों की मेहनत को समझने के लिए यह लोकप्रय कविता काफी मौजू है नहीं हुआ है अभी सवेरा पूरब की लाली पहचान चिडियों के जगाने से पहले खाट छोड उठ गया किसान । किसान अन्नदाता कहा जाता है वह सूर्योदय से सूर्यास्त तक अनवरत काम करता है उनके काम करने के घंट सुनिष्चित नहीं हे संकट में पडने पर भी वह किसी से नहीं कहता ।अभाव के दर्द का कडवा घूंट पीकर रह जाता है उसके रहन-सहन में बडी सरलता और सादगी होती हे वह फैषन और आडम्बर की दुनिया से दूर रहता है उसका जीवन अनेक प्रकार के अभावों से घिरा रहता है अपनी सरलता और सीधेपन के कारण वह सेठ साहूकारों तथा जमीदारों के चंगुल में फंस जाता है वह सेठ साहूकारों तथा जमीदारों के चंगुल में फंस जाता है वह उनके षोशण में पिसता हुआा दम तोड देता हैै। मुंशी प्रेमचंद्र ने अपने उपन्यास गोदान में किसान की दयनीय dआशा का मार्मिक चित्रण किया है। किसान कुछ दोशों के होने पर भी दैवी गुणों से युक्त होता हैै । वह परिश्रम बलिदान त्याग और सेवा के आदर्ष से संसार का उपकार करता है ईष्वर के प्रति वह अवस्थवान है प्रकृति का पुजारी है धरती मां का उपासक है धन से गरीब होने पर भी वह मन का अमीर और उदार है। किसान अन्नदाता है वह समाज का सच्चा हितैशी है। उसके सुख में ही देष का सुख है। इस देष की खुषहाली का राज इसी में है कि देष की आबादी का 70 फीसदी किस्सा आज भी किसान है और उसी का नतीजा है कि देष पूरे विष्व का सिरमौर रहा है किसानों के इसी यप् ने देष को कभी सोने की चिाडिया तो कभी जगद्गूरू जैसें संबोधनों से जवाजा आज दर्द है तो केवल यह किसानों का यह रूप् आज कहां खो गया और उसके लिए कौन जिम्मेदार है खैर अब जो दिखाई दे रहा है,वह अत्यंत डरावना है खेती की जमीन घट रहीं है। किसान घट रहें और घट रहा है किसान का वह नैसर्गिक रूवरूप् जो इस देष की सिरमौर हुआ करता थ। भारतीय संविधान के निर्माताओं को षायदयह भान न रहा होगा कि देष के किसानों को कभी यूनियन बनाकर अपने हक की आवाज बुलंद करनी होगी। किसान जिस देष का मालिक कहा जाता था आज वह एक तरहासे तमाषाई बनकर रह गया है कभी किसी यूनियन के बैनर तले वह अपनी आवाज बुलंद करनी होगी। किसान जिस देष का मालिक कहा जाता था, आज वह एक तरह से तमाषाई बनकर रह गया है। कभी किसी यूनियन के बैनर तले वह अपनी आवाज उठाने को मजबूर होता है तो कभी अपनी आने वाली पीढियों के भविश्य की चिंता करते हुए उसे अपने लिए आरक्षण की मांग करनी पडती है कभी अपनी जमीन की रक्षा के लिए आंदोलन करना पड़ता है तो कभी अपनी बनाई सरकों का कोपभजन बनना पड़ता आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ।किसानों के ही इस देष में आज देष कर्णधरों के सामने यह एक ज्वलंत सवाल है जिसका जवाब समय रहते उन्हें ढूंढ लना चाहिए,अन्यथा देष की आने वाली पीढी उन्हें कभी माफ नहीं करेगी। आने वाल पीढियों के भविश्य को लेकर किसानों के मन में बड़ी बेचैनी है और इसी बेचैनी का नीतजा है कि कभी वह रेल लाइनों पर धरना देकर बैठ जाता है तो कभी अपनी ही जमीन के लिए वह अपनी ही बनाई सरकार का कोपभाजन बन जाता है। यह विडंबना ही कि अपनी ही सरकार की गोलियां उसके सीने को छलनी कर रही है दरअसल देष की आजादी के बाद तरक्की की जो परिभाशा गढी गई उसने देष की दिषा ही बदल ही दी कही सड़कें बन रहीं है तो किसान की जमीन चाहिए। वहीं पावर हाउस बन रहे ह ै तो किसान की जमीन चाहिए लेकिन यह सोचा ही नहीं गया कि जिन किसानों की जमीन चली जाएगी उनका भविश्य क्या होगा उनकी आने वाली पीढियों का क्या होगा उनके गुजर बसर का पुख्ता इंतजमा नहीं किया गया। सवाल यह है कि यदि हम आज आपकी कोई संपति लेनाा चाह रहे है तो हम आपकों उसकी वाजिब किमत क्यों न दे ताकि उापकी आने वाली पीढ़ी भी उसके सहारे अपना गुजार बसर कर सके टकराव इसी बात को लेकर है देष की तरक्की के नाम पर छीना झपटी नहीं चलेगी यह षाष्वत सत्य है कि देष के हर नागरिक को रोटी खाने का अधिकर है। इसलिए सरकार को पहले उसकी व्यवस्था करनी चाहिए फिर उसकी जीविका के साधानों को उसे हस्तांतरित किया जाना चाहिएलेकिन देष की राजनीति ने इस षाष्वत और नैसर्गिक जरूरत को अपेक्षित कर यिा है इसीलिए राजनीति ने इस षाष्वत और नैसर्गिक जरूरत को उपेक्षित कर दिया है। लेकिन देष की राजनीति ने इस षाष्वत और नैसर्गिक जरूरत को अपेक्षित कर दयिा है। इसीलिए टकराव बढ रहा है आज नोएडा से लेकर आगरा तक संघर्श छिडा है। कल यह हवा और फैल सकती है होगा तो देष का ही नुकसान होगा। वह चाहे किसान का हो या सरकार का। षनिवार को नोएडा में हुए संघर्श में जो लोग मारे गए वह किसी न किसी किसान के बेटे ही होेंगे। इस क्षति से बचे जाने की जरूरत है और उसके लिए जरूरी है कि किसानों के साथ बैठकर ऐसी नीति बनाई जाए ताकि टकराव न हो और इसी से ही देष की तरक्की हो गति मिलेगी अन्यथा ऐसी तरक्की का कोई अर्थ नहीं होगा जो रक्तरंजित पथ से गुजरती हो किसानों ने आजादी स ेअब तक किसी भी देष की विकास वाले कार्यमें रोड़ा नहीं अटकाया लेकिन इधर एक दषक कसे अपनी जमीन स्वेच्छा से सार्वजनिक कार्यो के लिए देने वाला किसान ऐसा कैसे हो गया इस पर विचार करने की जरूरत है सिंगूर नंदीग्राम और नोएडा क्यों घटिता होता यह भी खोजबीन करने की जरूरत है कि मिाचल के पोंग बांध से लेकर अब तक किसानों कितना और मुआवजा मिला भविश्य में ऐसी कोई घटना न हो उसके लिए राजनीति नहीं चितन का समय है

May 16, 2011

छला जा रहा है आम आदमी

‘वरिष्ठ लेखक व साहित्यकार शंकर पुणताम्बेकर की एक लघु कथा हैं- ‘नाव चली जा रही थी। मझदार में नाविक ने कहा- नाव में बोझ ज्यादा है। कोई एक आदमी कम हो जाए तो अच्छा। नहीं तो नाव डूब जाएगी। अब कम हो जाए तो कौन हो जाए, कई लोग तो तैरना नहीं जानते थे। जो जानते थे। उसके लिए भी परले जाना खेल नहीं था। नाव में सभी प्रकार के लोग थे। डाक्टर, अफसर, वकील, व्यापारी, उद्योगपति, पुजारी, नेता के अलावा एक आम आदमी भी। डाक्टर, वकील, व्यापारी ये सभी चाहते थे कि आम आदमी पानी में कूद जाए। वह तैरकर पार जा सकता है, हम नहीं। उन्होंने आम आदमी से कूद जाने को कहा, तो उसने मना कर दिया। बोला मैं जब डूबने को हो जाता हूं तो आप में से कौन मेरी मदद को दौड़ता है, जो मैं आपकी बात मानूं। जब आम आदमी काफी मनाने के बाद भी नहीं माना तो ये लोग नेता के पास गए, जो इन सबसे अलग एक तरफ बैठा हुआ था। इन्होंने सब-कुछ नेता को सुनाने के बाद कहा-आम आदमी हमारी बात नहीं मानेगा तो हम उसे पकड़कर नदी में फेंक देंगे। नेता ने कहा, नहीं-नहीं, ऐसा करना भारी भूल होगी। आम आदमी के साथ अन्याय होगा। मै देखता हूं उसे। मैं भाषण देता हूं। तुम लोग भी उसके साथ सुनो। नेता ने जोशीला भाषण आरम्भ किया जिसमें राष्ट्र, देश, इतिहास, परम्परा की गाथा गाते हुए देश के लिए बलि चढ़ जाने के आव्हान में हाथ ऊंचा कर कहा, हम मर मिटेंगे लेकिन अपनी नैया नहीं डूबने देंगे, नहीं डूबने देंगे, नहीं डूबने देंगे। सुनकर आम आदमी इतना जोश में आया कि वह नदी में कूद पड़ा और, नाव डूबने से बच गई।’यह कथा आज के संदर्भ में आम आदमी की करूण गाथा को चित्रित करती है। ऐसी ही तस्वीर आज कुछ हमारे देश की भी है। वह बचना चाहता है तो लोग उसे डुबाना चाहते हैं। आज आम आदमी की बात सभी करते हैं। नेता, मीडिया, व्यापारी सभी। आम आदमी न हो तो देश का काम ही नहीं चल सकता। आम आदमी के हित के बारे में सभी सोचते हैं। वह आम आदमी ही है जो देश की सरकार बनाता है, सरकार गिराता है। वही है जो फैक्ट्रियों में हाड़-तोड़ मेहनत करता है। वह भी है जो खेतों में अनाज पैदा करता है और देश के और लोगों को खिलाने के लिए अपनी उपज मंडियों में दे आता है। आम आदमी की महत्ता के बारे में सोचा जाए तो कोई भी ऐसा काम नहीं है जो बिना उसके संपन्न हो सके। आम आदमी न हो तो रईशों की रईशी रह सकती है, न अमीरों की अमीरी, न ही चल सकती है नेताओं की राजनीति। यानि कि देश का सब कुछ यदि ठीक-ठाक चल रहा है तो आम आदमी के मजबूत कंधों पर। आम आदमी ही है जो सभी को शांति प्रदान करता है। वह तमाम समस्याओं की जड़ भी है और समाधान भी लेकिन इस आम आदमी की सच्ची तस्वीर कोई देखना ही नहीं चाहता। सत्ता के गलियारों में आम आदमी की खूब चर्चा होती है। सरकारों की तमाम योजनाएं आम आदमी के लिए बनती हैं। देश का बजट तैयार होता है तो उसमें सबसे ज्यादा यदि किसी का ध्यान रखा जाता है तो वह आम आदमी ही है। बजट ही उसके लिए बनता है। आम आदमी आज सबकी दुकानदारी चला रहा है। सबका टारगेट आम आदमी है, फिर भी वह किसी के टारगेट पर नहीं है। वह हर जगह छला जा रहा है। आम आदमी के मेहनती हाथों पर ही यह दुनिया टिकी हुई है। तुर्की के प्रसिद्व कवि नाजिम हिकमत की आम जनता को संबोधित एक कविता है- तुम्हारे हाथ और उनके झूठ। जिसमें कहा गया है कि यह दुनिया तुम्हारे हाथों पर टिकी है, गाय, बैल की सिंगों पर नहीं। इस संवेदनशील जनवादी कविता में आम आदमी की आशा और आकांक्षाओं को उसके श्रमिक हाथों की बुनियाद पर उकेरा गया है। इसी तरह मुंशी प्रेमचंद के घीसू और माधव तथा होरी के जिंदगी में आजादी के लंबे अर्से बाद भी सवेरा कहां आ पाया है। आम आदमी के प्रति संवेदनहीनता कम होेने के बजाए बढ़ती ही जा रही है। आज जिनके कंधों पर यह जिम्मेदारी है, वे ही गैर जिम्मेदारी निभाते हुए जिम्मेदारी का आवरण ओढ़े सुख भोगते फिर रहे हैं। राजनीति में अनेक विसंगतियां दिखाई देती हैं। आम आदमी की बात करने वाले नेता उससे इतनी दूरी बनाकर रखते, हैं, जहां से वह दिखाई तो देता है लेकिन उसकी आवाज वहां तक नहीं पहुंचती। इसके लिए अब मध्यस्थ की जरूरत पड़ने लगी है। इस मध्यस्थता ने ही आम आदमी को सबसे ज्यादा छला है। आम आदमी की बात करने वाले नेता के सामने ही उसके हितों की बलि चढ़ाई जा रही है। नाव से कूद जाने की परिस्थितियां उत्पन्न की जा रही हैं।आम आदमी के लिए जिस आदर्श की बात की जाती है, वे आदर्श ही खोखले और अनैतिक नजर आते हैं। ऐसे में उसके सामने समाज और देश की कैसी तस्वीर उभर सकती है। भरोसा यह है कि वही इन परिस्थितियों से उबारने में सक्षम है लेकिन वह विवश है गहरे पानी में कूद जाने को। देखा जाए तो आज जो कुछ चल रहा है, उसके पीछे आम आदमी की ताकत ही है। अस्पताल, कालेज, मंड़ी सब कुछ। भ्रष्टाचार, आतंक, गरीबी, भुखमरी जैसे अनेक थपेड़े उस पर रोज पड़ रहे हैं। आज वह इनसे खुद को टूटा हुआ महसूस करने लगा है इसी बीच एक आवाज आती है अन्ना हजारे की। उस आवाज में आम आदमी को अपनी आवाज सुनाई देती है तो वह उस आवाज में अपनी आवाज मिलाने बैठ जाता है। यह तारतम्य कब तक बना रहेगा, उसे भी नहीं पता।बात मीडिया की करते हैं तो आम आदमी वहां भी छला जाता दिखाई देता है। वहां पहले भी आम आदमी की बात की जाती थी और आज भी। बस उसका नजरिया बदल गया है। जबसे मीडिया का नजरिया बदला है, तबसे आम आदमी भी उसे दूसरी नजर से देखने लगा है। अब मीडिया आम आदमी को एक बाजार के रूप में देखने लगा है। यह आम आदमी का अधुनातन रूप है। वह आज एक सवाल बन गया है। ऐसा सवाल जिसका हल भी वह खुद है। आम आदमी तो अर्से से नैया न डूबने देने की कोशिश में अपने को कुर्बान करता आ रहा है लेकिन जो समर्थ और खास लोग हैं, वे उस कुर्बानी को भी स्वार्थ और लालच में भूलते जा रहे हैं और ऐसा नहीं कि यह भुलक्कड़ी अंजाने में हो रही हो बल्कि सब कुछ पूरे होशो-हवाश में घटित हो रहा है।
-सन्तराम पाण्डेय



May 5, 2011

अवैध कमेले की काली सत्‍ता और सिसकता न्‍याय
Wednesday, 04 May 2011 17:32 डा. नूतन ठाकुर भड़ास4मीडिया - हलचल

: हाजी याकूब कुरैशी और हाजी अखलाख के संरक्षण में चल रहा है यह कारोबार : मैं एक ऐसी समस्या से आप सभी लोगों को रूबरू कराना चाहती हूँ, जिसके बारे में अभी मेरठ के बाहर बहुत कम लोग जानते हैं, पर जब अपने आप में बहुत ही गंभीर और खतरनाक समस्या है. यह मामला है मेरठ के कमेले का. कमेला मेरठ में जानवरों का कटान करने वाला स्थान को कहते है.
यह मेरठ शहर के बाह्य इलाके में हापुड रोड पर स्थित है, यह ग्राम माफ़ी दमवा के खसरा सं0-3703 व 3708 पर स्थित है, जो मेरठ नगर निगम की जमीन है. इस तरह मूल रूप से यह कमेला मेरठ नगर निगम की सम्पत्ति है.
कमेले (पशु वधशाला) में किस प्रकार कार्य होना चाहिये, को ले कर बहुत सारे स्पष्ट नियम बनाये गए हैं. सैद्धान्तिक व कानूनी रूप से कमेले को यथा सम्भव साफ सुधरा रखा जाना चाहिये ताकि वह स्वच्छता के माप-दण्ड पूरा कर सकें. इसके साथ ही वहां जानवरो को इस प्रकार से काटा जाये जिससे किसी प्रकार का स्वच्छता सम्बन्धी खतरा उत्पन्न न हो. यह निर्देशित है कि यहॉं मात्र स्थानीय आपूर्ति के लिये कटान किया जाये, अतः यहाँ केवल वही लोग जानवरो को कटवाने के लिये जा सकते हैं जिनको उनका मॉंस बेचने का लाइसेन्स प्राप्त हो. कमेला या तो नगर निगम के द्वारा स्वयं संचालित किया जाये अथवा किसी अधिकृत ठेकेदार द्वारा नियमानुसार शुल्क जमा करने के बाद संचालित किया जाये.
जो जानवर इन कमेलों में लाये जाते है, उनकी मृत्यु पूर्व परीक्षण अवश्य किया जाये, जिससे उनके बारे में स्पष्ट जानकारी हो सकें. मुसलमानों के लिये उपयोग में लाये जाने वाले मांस के लिये इस्लाम की रीति के अनुसार हलाल खाद्य बनाने के लिए जबह की प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिये. जबह की प्रक्रिया में जानवर के गले पर एक धारदार हथियार से काफी तेज व गहरा घाव किया जाता है जिसमें कई सारी बातों का ध्यान रखा जाता है. जानवर की मृत्यु के बाद उसका पोस्टमार्टम परीक्षण होना चाहिये.
इसके साथ ही प्रत्येक कमेले में एक ईटीपी प्लान्ट (एक्यूमेन्ट ट्रीटमेन्ट प्लान्ट) होना चाहिये. यह प्लांट दृव्य को साफ करने वाला होता है. इसमें खून, गन्दा पानी और शेष जल इत्यादि डाले जाते है, जिससे यह उसे साफ करके शुद्ध जल प्रदान करता है. इसके अलावा एक टेण्डरिंग प्लान्ट होना चाहिये. टेण्डरिग प्लान्ट सॉलिड वेस्ट मेन्जमेन्ट के लिये है. यह सभी ठोस अवशेष डाले जाते है और यह प्लान्ट उन्हें पर्यावरण के लिये हानिरहित बना देता है.
एक कमेले में अधिकतम 350 जानवरों का कटान अनुमन्य है. वह भी केवल वही जानवर काटे जा सकते है जो दुधारू न हो, जिनका कोई अन्य उपयोग न हो, जो बूढ़े हो गये हों और बीमार भी न हों. यह सब एक पशु चिकित्सक द्वारा जॉंचा जाता है जो राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है. यह नियम किया गया है कि पशु चिकित्सक द्वारा अधिकतम 96 जानवर ही एक दिन में जॉंचे जा सकते हैं.
इन नियमों के विपरीत सबसे बड़ा प्रश्न है कि मेरठ में वर्तमान स्थिति क्या है? सच्चाई यह है कि मेरठ में कमेला उप्र राज्य प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड द्वारा बन्द किये जाने के निर्देश दिये गये हैं. इस तरह से सरकारी अभिलेखों के अनुसार मेरठ का कमेला बन्द है फिर भी खुले आम अवैध तरीके से चलाया जा रहा है. इस तरह मेरठ नगर निगम की जमीन पर कब्जा करने कुछ अत्यन्त प्रभावशाली ताकतवर लोगो द्वारा पूर्णतः अवैध ढंग से यह गलत कार्य किया जा रहा है, जिसमें जानवरों को अत्यन्त ही घृणित, दूषित और अत्याचारी ढंग से काटा जा रहा है.
इस तरह जानवरों को काटने वाले लोग किसी भी नियम व कानून का पालन नहीं कर रहे है. कमेले में न कोई पशु चिकित्सक है, कोई ईटीपी प्लान्ट ही काम कर रहा है, पर्यावरण को हो रहे नुकसान को लेकर चिन्ता नहीं है, अधिकत्म 350 के स्थान पर 3-4 हजार कटान रोज हो रहे हैं. जानवरों को काटे जाते समय न तो एन्टी मार्टम, पोस्टमार्टम ही हो रहा है. इस्लामी नियम के अनुसार जबह प्रकिया का बिल्कुल पालन नहीं हो रहा है. दुधारू व काम लायक जानवर भी खूब काटे जा रहे हैं.
उन जानवरों के खून, शरीर के हिस्से, मॉंस के लोथडे, चर्बी, आन्तरिक अंग और अन्य बेकार की चीजे बहुत ही गन्दें तरीके से आस-पास के वातावरण में छोड़ दी जाती है. इन जानवरों की हड्डी खुली भट्टी में जलाई जा रही है, जिनसे कमेले के आस-पास 8 से 10 किलोमीटर में बहुत दुर्गन्ध आती है.
इस तरह खून, शरीर के अंग, अवशेष आदि के आस-पास खुली नालियो में बहने के कारण काफी पर्यावरण प्रदूषण फैल रहा है. खून और अन्य अवशेष पास ही की काली नदी में जा रहे हैं, जिसके कारण व नदी इतनी प्रदूषित हो गई है कि वह मानव के लिये पूर्णतः अनुपयोगी हो गयी है. काली नदी आगे चलकर गंगा नदी में मिल जा रही है. इस कारण गंगा नदी भी प्रदूषित हो रही है. खुले-आम मॉंस के लोथड़े और शरीर के टुकड़ों से यहॉं-वहॉं फैलने से कई तरह की बीमारियॉं व स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या हो रही है. खुले नाले में शरीर के टुकडें, खून, अवशेष के बहने से बहुत ही वीभत्स दृश्‍य दिखता है. जिस प्रकार एन्टीमार्टम व पोस्टमार्टम को बिना कराये मॉंस को बेच दिया जाता है, उससे कई प्रकार की बीमारियॉं, स्वास्थ्य सम्बन्धी खतरों को होना सम्भव है.
चूंकि इस्लाम द्वारा निर्देशित जबह प्रक्रिया का अनुपालन नहीं हो रहा है और वह मांस मुसलमानों को दिया जा रहा है, इससे उनकी धार्मिक भावना से खिलवाड़ हो रहा है. यह पूरी प्रक्रिया बहुत ही गन्दे तरीके से भ्रष्ट उपायों को अपना कर की जा रही है, जिससे भ्रष्टाचार को सीधे-सीधे बढ़ावा मिल रहा है और स्थानीय प्रशासन के तमाम स्थानीय उच्च अधिकारी जिसमें मंडलायुक्त, जिला मजिस्ट्रेट, नगर आयुक्त, स्थानीय उच्च पदस्थ पुलिस अधिकारी आदि कोई भी शामिल हो सकते है, अपने अन्य कनिष्ठ अधिकारी मिलकर इस अवैध कटान को संचालित कर रहे हैं, जिससे भारी मात्रा में काला धन पैदा हो रहा है.
इस पूरी प्रक्रिया में सरकार का भारी नुकसान हो रहा है. यद्यपि इस कमेले से निकलने वाला मांस विदेशों को निर्यात हो रहा है, लेकिन उसपर न तो कस्टम और ना ही एक्साईज ड्यूटी दिया जा रहा है तथा सरकारी धन का नुकसान हो रहा है. स्थानीय प्रशासन इस मामले में पूरी तरह चुप है, क्योंकि जो व्यक्ति इस कमेले को चला रहे हैं, वह राजनैतिक रूप से काफी ताकतवर हैं और हमेशा सत्ताधारी दलों के साथ रहते है. अतः जिला प्रशासन हमेशा अपनी जान बचाने के लिये इनके साथ रहता है. इनमें खास कर स्थानीय विधायक और बसपा नेता हाजी याकूब कुरैशी तथा बसपा से सपा और अब पुनः बसपा में आये हाजी अख़लाक़ के नाम प्रमुख हैं. फिर यह लोग भारी मात्रा में अवैध पैसा भी अधिकारियों को देते हैं, जिसके कारण यह लोग ऑंख मूंद लेते हैं.
इस मामले में इस प्रकार से जानवरों को ट्रकों तथा अन्य वाहनों से सारे नियम को दरकिनार करके एकदम ठूंस कर लाया जाता है व वास्तव में अत्यन्त चिन्ताजनक है और पशु क्रूरता से सम्बन्धित नियमों का खुला उल्लंघन है. कई बार तो यह जानवर लाद कर लाने की प्रक्रिया में ही दबकर मर जाते हैं. इस विषम स्थिति से निपटने के लिए स्थानीय लोग ना जाने कई बार लामबंद हुए हैं, पर हर बार पैसे और ताकत के मोल से कमेले के ठेकेदारों ने इन लोगों के संघर्षों को समाप्त करते हुए अपना काला धंधा बरक़रार रखा है. अभी इन दिनों भी मेरठ में कमेले को ले कर विरोध हुआ है, चार-पांच दिन पहले हुए दंगे में भी इसी कमेले की प्रमुख भूमिका मानी जाती है. इसे लेकर कई सारी रिट भी हाई कोर्ट में पेंडिंग है पर वहाँ से भी फैसला नहीं आ सकने के कारण अब तक कोई न्याय नहीं मिल सका है.
यह एक ऐसी गंभीर समस्या है जिस पर हर किसी को ध्यान देना और इसे दूर-दूर तक फैला कर ध्यानाकर्षण करना आवश्यक होगा. आईआरडीएस और नेशनल आरटीआई फोरम की तरफ से हम लोग स्थानीय अधिवक्ता और सामाजिक रूप से जुझारू संदीप पहल के साथ मिल कर इस मुद्दे पर काम करने में आगे बढे़ हैं. अभी प्रारम्भ में हम इस मुद्दे से बाहर के लोगों को जागरूक करने और जोड़ने का काम कर रहे हैं. हमने इसके लिए निम्न दो ब्लॉग भी शुरू किये हैं - http://kamelameeruthindi.blogspot.com/ एवं http://kamelameerut.blogspot.com/. यह एक व्यापक और कठिन लड़ाई है लेकिन इसमें बिना हार-जीत की चिंता किये लड़ा जाना बहुत जरूरी है.

May 1, 2011

निर्मल जी की कविता

पहला सबक
हाथ में गुलेल लिएएक शैतान बच्चागुजरा
गली सेऔर
गली के पुरानेमेहराबदार
मकानों कीमुँडेरों पर पसरे
कबूतरफुर्र से उड़ेऔर
गायब हो गएआकाश की
गहराइयों में कहींबस,
एक कौआ बैठा रहाघर
की अलगनी मेंकाँव-काँव
करताबच्चे को चिढ़ाता
कौआ जानता है-गुलेल से
पत्थर फेंकने कीसंपूर्ण प्रक्रियाशैतान
बच्चे कीलक्ष्यवेधी क्षमताऔर
आपातकाल मेंआपने बचाव के उपाय
कबूतर जानते हैं-भरपेट दाना
चुगनागुटरगूँ-गुटरगूँ करनाऊँचे
आकाश में उड़ान भरनाऔर
तीव्र गति से फेंके गएपत्थर
सेआहत हो धरती पर गिर
जानाइसके सिवा कुछ भी नहीं
मासूम कबूतरों की मृत देहों के
सहारेपरवान चढ़ी हैशैतान
बच्चे की क्रूरताअब उसकी
निगाहफुर्र से उड़ जानेवाले
कबूतरों पर नहींकौए की
चतुराई पर टिकी हैबच्चा
सीख रहा हैगुलेल को
पीठ के पीछेछुपाकरअपने
मासूम चेहरे कोमासूमियत
से ढाँपदुनियादार होने का पहले सबक

जल ही जीवन है

पृथ्वी पर पहला जीव जल में ही उत्पन्न हुआ था। जल इस युग में अनमोल है। ऐसा नहीं है कि इसी युग में पानी की अत्यधिक महत्ता प्रतिपादित की गई है, वरन हर युग में पानी का अपना महत्व रहा है। तभी तो रहीम का यह पानीदार दोहा हर एक की जुबान पर आज तक जीवित है-रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून।।हमारा देश कृषि प्रधान देश है जहाँ खास तौर से ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका एवं अर्थव्यवस्था का एकमात्र साधन कृषि ही है। कृषि सिंचाई पर निर्भर करती है और सिंचाई का प्रमुख प्राकृतिक स्रोत नदियाँ ही होती है। प्रदेश में नदियों का जाल जैसा बिछा हुआ है। समुद्री जल विश्व में उपलब्ध समस्त जल स्रोतों का 97 प्रतिशत है जो उपयोग योग्य नहीं है। उपयोग के लिए केवल 3 प्रतिशत जल ही उपलब्ध है जिसका विश्व की इतनी विशाल जनसंख्या इस्तेमाल करती है। संसार की सभी वस्तुओं में जल सर्वोत्तम है। ऐसी यूनानी मान्यता है। जल को इसीलिए जीवन का पर्याय माना गया है। उपयोग योग्य तीन प्रतिशत जल बढ़ती हुई जनसंख्या की प्यास बुझाने और अन्य उपयोग की आपूर्ति करने में पर्याप्त नहीं है।
आज सभी को जल बचाव के लिए जुट जाना चाहिए । क्योंकि बिना जल के जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती ।

Apr 13, 2011

जनता के सवाल

गोदामों में सड़ रहा है लाखों टन खाद्यान : देश की एक बड़ी आबादी को नहीं मिल रहा दो वक्‍त का भोजन : बाजारों पर सरकार का नियंत्रण नहीं : गालिब ने कहा था- 'ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले, निकलना खुल्द से आदम का सुनते आए थे लेकिन, बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले।' आमजन पर ये पंक्तियां आज भी मौजूं हैं। आमजन जो चाहता है, वही नहीं होता। यों तो उसी की सरकार है, उसी के लिए है, उसी की बनाई हुई है, फिर भी जन अपेक्षाएं सरकारों की चौखट पर दम तोड़ रही हैं। आप कभी बाजार गये हैं? यह सवाल इसलिए कि बाजार जाने वाला ही बाजार का दर्द जान सकता है। आज सड़क से लेकर संसद तक महंगाई की चर्चा जुबां पर है, वह चाहे नेता हो या आम जन। महंगाई को लेकर देश की व्यवस्था इसलिए आरोपों के घेरे में हैं क्योंकि उसी की लापरवाही और अदूरदर्शिता के कारण चीजों के दाम आसमान छूने लगे हैं। बाजार का रुख केवल उपलब्धता पर ही निर्भर नहीं करता, और भी कुछ कारण जुड़े हैं। बाजार से आम जन की रसोई जुड़ी हुई है। बाजार के उतार चढ़ाव के हिसाब से रसोई में भी उतार चढ़ाव चलता रहता है। आंकड़ों की बात करें तो देश के ढेर सारे नागरिक दो वक्‍त की रोटी के लिए भी मोहताज हैं। कभी उनकी रसोई में रोटी है तो सब्जी नहीं और चावल होता है तो दाल नहीं। इसका कारण महंगाई और अव्यवस्था दोनों हैं। सूचना थी कि सरकार द्वारा खरीदा गया लाखों कुन्तल गेहूं बारिश में भीगने के कारण नष्ट हो गया। इस पर राजनीतिक क्षे़त्रों में गरमा-गरमी हुई। मामला कोर्ट के संज्ञान में पहुंचा तो कोर्ट ने भी व्यवस्था को दोषी ठहराते हुए कहा कि यदि अनाज सुरक्षित नहीं रखा जा सकता तो उसे गरीबों में बंटवा क्यों नहीं देते। माना जाए तो यह टिप्पणी व्यवस्था पर बहुत बड़ा तंज है। जब देश के असंख्य नागरिकों को एक वक्त की रोटी भी नसीब न हो रही हो तो ऐसे में सरकारी खरीद और कल के लिए अनाज बचाकर रखने की सोच किस काम की है ? बात बाजार की हो रही है। आजकल बाजार अमूमन बाजार वालों के हिसाब से चलता है। किसी भी बाजार में चले जाइये, वस्तुओं की रेट सूची नदारद ही मिलेगी। यह हालत केवल खाद्य पदार्थो में ही शामिल वस्तुओं की ही नहीं है। कपड़ा, फर्नीचर, वाहनों पर यात्री किराया जैसी सभी बातें इसमें शामिल हैं। जो रेट बाजार ने तय कर दिया, वही लागू हो जाता है, लेकिन वह भी पूरी ईमानदारी के साथ नहीं। जैसा ग्राहक मिलता हैं, उसी तरह रेट तय हो जाता है, वह व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी हैं कि एक ही बाजार में एक ही चीज के कई -कई रेट मिलते हैं। चीजों के रेट में उतार और चढ़ाव के पीछे और भी कई कारण है। इसमें मिलावट सबसे प्रमुख है। कोई भी शुद्धता की गारंटी नहीं ले सकता, वह चाहे व्यवस्था से ताल्लुक रखता हो अथवा हो अथवा वह उपभोक्ता हो। मिलावट ही वह रोग है, जिससे उपभोक्ता दो तरह से पिस रहा है। अधिक कीमत अदा करने के बावजूद किसी उपभोक्ता को शुद्ध सामग्री मिल ही जाएं, इस बात की गांरटी नहीं है। बाजार पर अकुंश लगाने के लिए जो व्यवस्था बनाई गई है, वही पूरी तरह निरंकुश है। व्यवस्था ही संदेश के घेरे में बनी रहती है। मिलावटियों के खिलाफ अभियान चलाने वाले कभी गंभीर हुए हों, याद नहीं आता। हमारे समाज की रीत है कि घरेलू चीजों की ज्यादातर खरीदारी महिलाएं ही ज्यादातर करती हैं। उन्हें बाजार के बारे में ज्यादा पता होता है। उनकी नजर शुद्धता की पहचान करने में भी पुरूषों से ज्यादा पैनी होती है। इस कार्य में पुरूषों को फिसड्डी साबित करना हमारा मकसद नहीं है लेकिन सच्चाई यही है कि महिलाएं खरीदारी में ज्यादा निपुण होती है। संवैधानिक तौर पर देश की व्यवस्था इतनी चाक-चौबंद बनाई गई है कि यदि सब अपने-अपने मोर्चे पर ईमानदारी से डटे रहें तो गड़बड़ी का सवाल ही नहीं है, लेकिन यदि ऐसा हो जाए तो फिर अव्यवस्था शब्द को ही शब्दकोश से निकालना पड़ जाएगा। अभी जब विपक्षी दलों ने सरकार को मंहगाई के मसले पर घेरा तो सरकार परेशान हो उठी। सरकार को अपनी कुर्सी खतरें में दिखाई देने लगी। विपक्षी दलों को भोज पर बुलाकर सब कुछ मैनेज कर लिया गया। देश की जनता को क्या सवाल पूछने का हक नहीं है कि यदि सरकार नागरिकों को तयशुदा रेट पर सामग्री नहीं दिला सकती और बाजार को नियंत्रित नहीं रख सकती तो उसे सत्‍ता में बने रहने का हक क्यों दिया जाए? लेकिन लगता है कोई भी राजनीतिक दल जनता की इच्छाओं से सरोकार रखता ही नहीं। इस सवाल का जबाव जनता को कौन देगा कि उसे हर चीज सुलभ क्यों नहीं हो पा रही हैं? इसके लिए जो भी तत्व जिम्मेदार हैं, उनके खिलाफ कार्रवाही करने में हीला-हवाली क्यों की जाती हैं? कभी इसी देश में सुना जाता था कि कम अथवा गलत तोलने वाले के हाथ काट लिए जाते थे। यदि कभी ऐसा होगा रहा होगा तो यह भी सच है कि उस वक्त की सरकारें आज की सरकारों से ज्यादा संवेदनशील रही होंगी। यह भी जाहिर है कि उस किस्म की सरकार को अपनी नहीं, जनता की चिंता ज्यादा रहती होगी। क्या आज? जबकि देश में जनता की, जनता के लिए सरकारें हैं तो जनता के सापेक्ष व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती ? देश में सरकारें चलाने वाले राजनीतिक दलों की अपनी-अपनी विचारधाराएं है और सभी जनता के लिए अच्छी हैं तो सवाल उठता है कि अब वह जनता की कसौटी पर भोथरी क्यों हो गई हैं? केंद्र की सत्‍ता में बैठे दल का दावा है कि वह देश के सभी फिरकों और पक्षों को साथ लेकर चलने मे सक्षम है तो क्या कारण है कि आज जनता की अपेक्षओं पर वह फिसड्डी साबित हो रही हैं? एक दल दावा करता है कि समाजवाद की विचारधारा उसे विरासत मे मिली है लेकिन लगता है कि वह भी समाज वाद को भूल बैठा है। एक और दल स्वयं को बहुजन समाज के हितों का पोषक होने का दावा करता है लेकिन उसके राज में आज बहुजन के हित ही भट्ठी पर चढ़ रहे हे। कोई दल हिंदू हितों का पोषक होने का दावा करता है लेकिन समाज में उनकी नीतियां भी कसौटी पर खरी नहीं उतर रही हैं। ऐसा क्यों ? दल अपनी-अपनी नीतियों से डिगे हुए क्यों है ? महंगाई की बात करें तो इस एजेंडे पर यूपीए नाकाम साबित हुई है। महंगाई पर आज सबसे ज्यादा असर पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतों ने डाला है। सरकार पर यह आरोप लगता ही रहता है कि उसके कई मंत्री पूंजीपति घरानों के संपर्क में रहते है इसलिए उनके खिलाफ कुछ करने का साहस उनमें नहीं है। इससे एक बात यह भी साबित होती है कि राजनीतिक स्पेस में ठंसे हुए नेताओं के बीच जनता की पक्षधर कोई जमात नहीं है, जो उसके हितों की जोरदार वकालत कर सके। व्यवस्था बनाने में नौकरशाही की महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन नौकरशाही जनहितों की परवाह करने में नाकाम साबित हो रही है। ऐसी स्थिति में बाजार के मालिक बाजार वाले खुद ही बन बैठे हैं तो इसके लिए देश की जनता अथवा बाजार नहीं, सरकार और व्यवस्था खुद ही जिम्मेदार है। आज यह भी समझ लीजिए कि महंगाई को लेकर जनता मे जो गुस्सा है, वह किसी राजनीतिक दल के खिलाफ बागी न बना दे। आज वह छटपटा रही है। जनता की छटपटाहट दूर करने के लिए सरकार को इस बौनी व्यवस्था के खिलाफ कुछ निर्मम फैसले लेने पड़ सकते है लेकिन ऐसा करने के लिए मजबूत इच्छा शक्ति का होना जरूरी है।

Apr 12, 2011

बस एक ही अन्ना काफी है.....

बस एक ही अन्ना काफी है आबाद गुलिस्ताँ करने को . इस देश को अन्ना की जरुरत तो गाँधी जी के बाद से ही थी । यदि वह पहले ही आ गए होते तो आज देश इस हालत में न पहुंचता और न हम लोग पहुँचाने ही देते । अब तक देश में अनेक अन्ना हो चुके होते और ये सारे अन्ना मिलकर देश की निगहबानी कर रहे होते। गाँधी जी ने जिस भारत की कल्पना की थी वह तो लगता है उनके साथ ही चला गया । इन लोंगो ने जो भारत बना दिया शायद यह उनकी कल्पना नहीं थी । मजे की बात यह है कि यहसब कुछ उनका ही नाम लेकर किया जा रहा है । देश में आज आतंकवाद , लूट खसोट महंगाई और घपले घोटाले अपने चरम पर हैं और यह सन देश के नेताओं की देख रेख में हो रहा है । अगर ऐसा नहीं है तो इस सवाल का जवाब कोई क्यों नहीं देता की इसके लिये जिम्मेदार कौन है । जब देश की जनता अपना वोट देकर उन्हें जिम्मेदार बनाती है तोवह अपनी जिम्मेदारी से कैसे मुकर सकते हैं और नहीं जिम्मेदारी उठा सकते तो जाना ही होगा और अन्ना यही तो कह रहे हैं की ठीक से देश के लिए काम करो । नहीं कर सकते तो घर बैठो । अब एक नहीं हजार अन्ना जवाब मांगेगे और जनता के सवालों का जवाब देना ही होगा क्योंकि वही इस देश की असली मालिक है । अब समय आ गया है की देश के हर नागरिक को अन्ना बनना पड़ेगा । जय भारत जय हिंद जय जनता ॥

Mar 21, 2011

मजे से मनाहोली का त्यौहार

इस बार होली का त्यौहार खूब मजे से मना। मेरठ में कई जगह जाने का मन था लेकिन रंग के बाद जब सो गया तो नीद ने खूब मनमानी की । निर्मल जी के यहाँ गया । थोड़ी गप्प हुई । लेट होने का नतीजा यह हुआ कि बस कलक्ट्रेट ही जा सका । ढेर सारे नए पुराने लोग मिले न मिलने के गिले शिकवे के साथ । इस होली मिलन कि खास बात यह रही कि अधिकारी तो नए मिले और नेता पुराने । नेता वही पुराने और उनके दल नए । इस बार यह नयी बात जरूर दिखी कि साहित्य को लेकर कोई उत्साह नहीं दिखा । लगा कि होली से साहित्य का जुडाव पुरानी बात हो गयी ।
जहा नहीं जा सका उन्हें इसी माध्यम से बधाई दे रहा हूँ । पुष्पेन्द्र जी , प्रमोद पाण्डेय जी , सूर्यकांत जी , के पी जी , विजयराज जी , नाराज न हों । अगली होली आप सबके नाम ही आरक्छित है । इस बार एकनया नाम और जुदा है अपने सर्किल में और वह है अमिताभ ठाकुर का । आप मेरठ में पोस्टेड है । बधाई हो आपको होली की। अपने ग्रुप एडिटर आरपी सिंह जी से तो बस दफ्तर में ही होली मिल पा रहा हूँ पिछले तीन सालों से । वह हर बार दिल्ली खिसक जाते है । बस इसी बात की गड़बड़ है । इंतजार है कि वह होली मेरठ में मनाएं और हम सब साथ साथ होली का आनंद लें ।
..... संतराम पाण्डेय
९६३९०१०१६६

Jan 9, 2011

अरे ! आप तो जैसे थे वैसे ही है पुष्पेन्द्र जी

आप से पिछले दिनों काफी अरसे बाद मिलना हुआ । एक बार
जब राधा गोविन्द कालेज के मैदान में मैच हो रहा था तब और
बाद में जब अतुल जी की शोक सभा में प्रेस क्लब आना हुआ ।
बात करने का वही अंदाज । चाल में वही पुरानी
मस्ती । नाहक ही लोग कहते है की पुष्पेन्द्र जी बदल गए है । बोल में वही मिठास ।
जो किसी को भी अपना बना लेती है । हाँ ! तरक्की से जुडी कुछ मजबूरिया होती है
जिसका लोग अलग मतलब निकल लेते है । मिलना जुलना कम हो जाता है लेकिन यह तो
होता ही है । वह चाहे कोई भी हो । हम जब निर्मल जी से मिलते है तो जरूर चर्चा होती है ।
अब यही देखिये हम भी तो निर्मल जी से ज्यादा नहीं मिल पाते तो इसका मतलब तो यह नहीं की हम दूर हो
गए । हम लोगों में आज भी वही दो दसक पुरानी गर्मजोशी बनी है ।ईश्वर से
यही गुजारिश है कि हम लोगों में यही मोहब्बत बनी रहे और हम लोगों का साथ भी
बना रहे । क्यों हम ठीक कह रहे हैं न ।

हम और आप ही कम करेंगे सड़क की भीड़

Jan 4, 2011

न खोएं रिश्तों का आधार

आज जो कुछ कहने का मन हो रहा है उसे डा कुअंर बेचैन की दो पंक्तियों ने और कुरेद दिया । वह कहते हैं -
कौन किसका साथ देता है
कौन गिरते को हाथ देता है
तुम गर चाहो तो देख लो गिरकर
दोस्त पीछे से लात देता है ।
आज गिरते रिश्तों को देख कर यकीन नहीं होता कि यह वही देश है जो वसुधैव
कुटुम्बकम को आत्मसात किये है । समाज से अपनापन रोज बेदखल होता जा
रहा है । हम दिलो दिमाग से इसे ख़ारिज करने पर तुले हैं । एक कवी ने ठीक
ही कहा है -
रिश्तों की कैसी उलझन है
शर्तों पर होते बंधन हैं
अब बंध जाने का मोह नहीं
बस खुल जाने की तड़पन है ।
बस एक बात कहनी है कि जब रिश्ते बोझ बन जाएँ तो उसे ऐसे उठायें कि जिंदगी
हलकी हो जाये । उसे बोझ न बने रहने दें ।